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________________ ३२. “इस विपुल वेदना से यदि एक बार भी में मुक्त हो जाऊं तो क्षान्त, दान्त, आरम्भ रहित, अनगार - चर्या में प्रव्रजित हो जाऊं।" ३३. “हे नराधिपति! ऐसा चिन्तन करते-करते में सो गया। रात्रि व्यतीत होने के साथ-साथ मेरी वेदना नष्ट हो गई।" ३४. “प्रातःकाल स्वस्थ होते ही (अपने पूर्व-चिन्तन के अनुरूप) में बन्धु-जनों से पूछ (अनुमति प्राप्त) कर क्षमाभावयुक्त, इन्द्रिय निग्रही, आरम्भ-हीन (सावद्य क्रिया से रहित) होते हुए अनगारचर्या में प्रव्रजित (दीक्षित) हो गया।” ३५. “तब, मैं अपना और दूसरों का एवं त्रस व स्थावर सभी प्राणियों का नाथ हो गया।" ३६. “(क्योंकि) मेरी (अपनी) आत्मा (ही नरक की) वैतरणी नदी है, मेरी आत्मा (ही) कूट शाल्मली वृक्षं (जैसी दुःखदायी) है, आत्मा ही कामदुधा (समस्त इच्छाओं को पूर्ण करने वाली) धेनु है और मेरी आत्मा ही नन्दन वन है।” | ३७. “आत्मा ही (स्वयं अपने) सुखों तथा दुःखों का कर्ता (उत्पादक) व विकर्ता (विनाशक या भोक्ता) होता है। आत्मा (ही) सुप्रवृत्त (सदाचारी) व दुष्प्रवृत्त (दुराचारी) मित्र या अमित्र होता है।" ३८. “(राजन्!) एक और दूसरी अनाथता यह है, उसे शान्त व एकाग्र चित्त होकर सुनें । जैसे कुछ एक कायर (संयम में उत्साह-हीन) व्यक्ति निर्ग्रन्थ-धर्म को प्राप्त करके भी दुःखी (या शिथिलाचारी) होते हैं।” अध्ययन-२० ३८१
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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