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अध्ययन परिचय
साठ गाथाओं से निर्मित हुआ है प्रस्तुत अध्ययन। इस का केन्द्रीय विषय है-महानिर्ग्रन्थ के वास्तविक स्वरूप का उद्घाटन। इसीलिए इसका नाम 'महानिर्ग्रन्थीय' रखा गया। महानिर्ग्रन्थ का सत्य यहां निरूपित हुआ है। इसका अर्थ महानिर्ग्रन्थ के अपने जीवन का सत्य भी है और महानिर्ग्रन्थ द्वारा उद्घाटित संसार व जीवात्मा का सत्य भी। यह मनुष्य के अन्तर्जीवन का सत्य
भी है और बाह्य जीवन का सत्य भी। मनुष्य की सार्थकता और निरर्थकता, दोनों का सत्य है यह। महानिर्ग्रन्थ द्वारा अनुभूत और अभिव्यक्त होने से यह सत्य जितना प्रामाणिक है, उतना ही स्पष्ट भी।
महानिर्ग्रन्थ अनाथ नहीं होता। असहाय नहीं होता। परावलम्बी नहीं होता। अनाथी मुनि संसारतः वैभवशाली श्रेष्ठी के पुत्र थे। कहीं कोई अभाव न था। नेत्र-पीड़ा ने एक बार उन्हें ऐसा घेरा कि उस पीड़ा से उन्हें कोई मुक्त न कर सका। पीड़ा-ग्रस्त नेत्रों से वे देखते रहे-उपचार करने में विद्यामंत्र असफल रहे। जड़ी-बूटियां असफल रहीं। पिता का सारा धन असफल रहा। मां की ममता असफल रही। भाई-बहिनों का स्नेह असफल रहा। पत्नी की सेवा असफल रही। सफल होने के लिए अपना सभी कुछ छोड़ने को तत्पर ये सब असफल रहे।
असफलता की इस निरन्तरता से उनके अन्तर्नेत्र खुले। उन्होंने देखा-कहने को सब अपने हैं। वास्तव में कुछ भी अपना नहीं। कोई भी अपना नहीं। न धन-वैभव, न सांसारिक विद्याएं, न मोह-ममता, न शरीर-सेवा। बाहर के जड़-चेतन पदार्थों में से कोई साथ नहीं देता। जो इन पर भरोसा करता है, इन्हें अपना मानता है, वह यदि सम्राट् श्रेणिक भी हो, तो अनाथ है। इस दृष्टि से कि उसका कोई नहीं। इस दृष्टि से कि इस सत्य को वह नहीं जानता। वह अनाथ भी है और भ्रमित भी। अनाथ होना उसके जीवन का दुःख है। भ्रमित होना इस दुःख में ही उसके फंसे रहने की आशंका है।
भ्रम का टूटना जीवात्मा की दु:ख-मुक्ति की सम्भावना का सूत्रपात है। अनाथ यदि अपने को अनाथ स्वीकार कर ले तो भवसागर की दु:ख-परम्परा में परिवर्तन घटित हो सकता है। सम्भावना का द्वार खुल सकता है। बाह्य जड़-चेतन पदार्थों के खोखले सहारे वह छोड़ सकता है। कागज़ की नाव से वह काठ की नौका में सवार हो सकता
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उत्तराध्ययन सूत्र