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अध्ययन-सार :
पूर्व-जन्म की स्मृति के कारण श्रमण-प्रवज्या ग्रहण करने के लिए उद्यत राजकुमार मृगापुत्र ने माता-पिता के समक्ष अपनी भावना को इन शब्दों में प्रस्तुत किया
"शरीर की अनित्यता को और विषय-भोगों के सेवन के दुष्परिणामों को एवं नरकादि दुर्गतियों में होने वाले दुःखों को मैं जान चुका हूं, विषय- भोगों से मुझे विरक्ति हो गई है, और मैं चाहता हूं कि जरा-मृत्यु के दावानल से जल रहे इस लोक में अपनी मूल्यवान् आत्मा को सुरक्षित रख सकूँ और इस दु:खबहुल संसार से छुटकारा प्राप्त कर धर्माचरण-रूपी पाथेय के साथ, संयम-मार्ग द्वारा शाश्वत स्थान मुक्ति-धाम की ओर प्रस्थान करूं। अत: आप मुझे मुनि-दीक्षा की अनुमति प्रदान कर अनुगृहीत करें।"
_माता-पिता ने मगापत्र को समझाया-बेटे! श्रमण-चर्या अत्यन्त दुष्कर है। इसमें अविश्रान्त भाव से जीवन-पर्यंत पांच महाव्रतों का पालन करना, विविध परीषहों को समभाव से सहन करना तथा दारुण केशलोच व कठोर ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना जब महात्माओं के लिए भी दुष्कर है तब सुख-भोग की आयु वाले तेरे जैसे सुकुमार बालक के लिए तो कहना ही क्या? इसका अनुष्ठान उतना ही कठिन है जितना सागर को भुजाओं से पार करना, लोहे के चने चबाना, या तलवार की धार पर चलना, अग्निशिखा को पीना तथा मेरु पर्वत को तराजू से तोलना। अतः युवावस्था में उपलब्ध काम-भोगों का सुख-भोग कर लो, बाद में भुक्तभोगी होकर धर्माचरण के लिए सोचना।" । ___ मृगापुत्र ने कहा-"जिनकी विषय-सुख की प्यास बुझ चुकी होती है, उनके लिए श्रमण-चर्या कठिन नहीं है। रही कष्ट सहने की बात, वह तो मैंने न जाने कितनी बार, भयंकर जन्म-मृत्यु के कष्टों को और विविध प्राणघातक दुःसह नरक यातनाओं के रूप में सहा है।" इस सत्य को प्रमाणित करने के लिए उन्होंने अनेक तर्क दिये। अन्तत: माता-पिता ने मृगापुत्र को दीक्षा की अनुमति दे दी। ममत्व का पूर्णतः त्याग कर मृगापुत्र प्रव्रजित हुए। ममत्व, अहंकार, आसक्ति, कषाय, शल्य, निदान आदि कर्म-बन्धनों से मुक्त होकर, पूर्णत: समत्व भाव के साथ प्रशस्त ध्यान-योगों व विविध तपश्चरणों में निरत होते हुए, मृगापुत्र ने शाश्वत-अविनाशी श्रेष्ठतम सिद्धि-'मुक्ति' प्राप्त की।
मृगापुत्र के समान तत्व-ज्ञाता व्यक्ति भी संसार-निवृत्त होते हैं।
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उत्तराध्ययन सूत्र