________________
SMITH.]
१२. जिस प्रकार अविनीत (अड़ियल) घोड़े को बार-बार चाबुक की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार (शिष्य) बार-बार (आदेश या उपदेश रूप) वचन की अपेक्षा न रखे। चाबुक को देखते ही विनीत या प्रशिक्षित घोड़ा जैसे (उन्मार्ग-त्यागी) होता है, वैसे ही (विनीत शिष्य गुरु के संकेत-मात्र से) पाप-कर्म को छोड़ दे । १३. (आज्ञा को) न सुनने वाले, बिना सोचे-समझे बोलने वाले तथा दुराचारी शिष्य (हों, तो वे) मृदुस्वभावी (गुरु) को भी क्रोधित कर देते हैं । (किन्तु गुरु के) मनोभावों के अनुकूल चलने वाले तथा निपुणता से युक्त शिष्य (हों, तो वे) उग्रस्वभावी गुरु को भी प्रसन्न कर लेते हैं ।
१४. (शिष्य) बिना पूछे कुछ भी न बोले, पूछने पर झूठ न बोले । क्रोध (आ जाए तो उस) को 'असत्' (अर्थात् निर्मूल) कर दे, और गुरु जनों के प्रिय और अप्रिय (दोनों ही वचनों) को धारण करे, स्वीकार करे ।
१५. (शिष्य को) स्वयं का ही दमन करना चाहिए, क्योंकि (स्वयं अपनी) आत्मा का दमन कठिन होता है । दमित की गई आत्मा (ही) इस लोक और परलोक में भी सुखी होती है ।
१६. (शिष्य चिन्तन करे) मेरे लिए यह श्रेष्ठ है कि संयम व तप के द्वारा मैं स्वयं आत्मा का दमन करूं। यह (अच्छा) नहीं कि दूसरे (लोग) बन्धन व वध के द्वारा मेरा दमन करें ।
レ
१७. (शिष्य) किसी के सामने, या एकान्त स्थान में भी, प्रबुद्ध जनों (आचार्यादि) के प्रतिकूल कार्य, वाणी से या कर्म से, कभी न
करे ।
अध्ययन १
€
DIOCO