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________________ ५६. “रोता-बिलखता हुआ में, लोहे जैसी व संडासी जैसी चोंच वाले चील व गीध (आदि) पक्षियों द्वारा बलपूर्वक (नोच-नोच कर, छिन्न-भिन्न व) नष्ट किया जा चुका हूं।" ६०. “प्यास से व्याकुल हुआ में, दौड़ कर वैतरणी नदी पर गया और 'जल पीऊ' यह चिन्तन कर ही रहा था कि छुरे की (धार जैसी तीखी जल) धारा ने मेरा (अंग-अंग चीर कर) विनष्ट कर दिया।" ६१. “गर्मी से अत्यन्त तप्त होकर (छाया के लिए) में 'असिपत्र' महावन में पहुंचा (किन्तु वहां भी) गिरते हुए असि-पत्रों (वृक्षों के तलवार जैसी धार वाले पत्तों) से अनेक बार छेदा गया।" ६२. “(शरीर को चूर-चूर करने वाले) मुद्गरों-भुशुंडियों (लोहे के कांटों से युक्त लकड़ी के शस्त्रों) त्रिशूलों व मूसलों (के प्रहारों) से भग्न गात्र में निराशा युक्त अनन्त बार दुःख प्राप्त कर चुका ६३. “(नरक में) तीक्ष्ण धार वाले छुरों, छुरियों व कैंचियों के द्वारा मैं अनेक बार खण्डित, विभाजित छिन्न-भिन्न किया जा चुका हूं, तथा उनसे मेरी चमड़ी (तक) उतारी जा चुकी है।" ६४. “अवश मृग की तरह में पाशों व कूट (कपट-पूर्ण) जालों द्वारा अनेक बार छलपूर्वक बांधा और अवरुद्ध (बन्द) कर विनष्ट। मारा गया हूं।" ६५. “गलों (मछली फंसाने के कांटों) तथा मकर-जालों के द्वारा मछली की तरह पराधीन हुआ, मैं अनन्त बार बींधा (खींचा) फाड़ा, पकड़ा व मारा गया।" अध्ययन-१६
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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