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५२. “बन्धु-जनों से रहित (असहाय) तथा रोता-चिल्लाता हुआ में पकाने
के बर्तनों में (या भाड़ की आकृति वाले घड़ों में पकाया गया हूं ।) ऊपर बांधा (जा चुका हूं) तथा करवत (आरा) व आरी आदि
द्वारा अनन्त बार छेदा (टुकड़े-टुकड़े किया) जा चुका हूं।" ५३. “अत्यन्त तीक्ष्ण कांटों से आकीर्ण, ऊँचे शाल्मली (सैमर) के वृक्ष
पर (मुझे) पाश से बांध कर, इधर-उधर खींचते हुए मुझे दुष्कर (असहनीय) कष्ट देकर, फेंका (तथा छिन्न-भिन्न कर) पूर्व-कर्मों
का फल दिया गया ।” ५४. “अत्यन्त आक्रन्दन (भयंकर शब्द) करता हुआ मैं पापकर्मा
अपने अशुभ कर्मों के कारण, गन्ने की तरह बड़े-बड़े यन्त्रों में, अनन्त बार पीला (पेरा) जा चुका हूं।"
५५. “(इधर-उधर) भागता हुआ तथा चिल्लाता हुआ मैं, श्याम
(काले) व शबल (चितकबरे) सूअर व कुत्तों (के रूप वाले परमाधार्मिक देवों) द्वारा अनेक बार (नीचे) गिराया, फाड़ा तथा
छेदा जा चुका हूं ।” ५६. “(अपने ही) पाप-कर्मों के कारण (में नरक में) पैदा होकर,
अलसी के फूलों की भांति नीले रंग वाली तलवारों से, भालों से तथा पट्टिश (लोहे के डण्डों/शस्त्रों) से छेदा, भेदा तथा खण्ड-खण्ड किया जा चुका हूं।" “में लोहे की समिला कील से युक्त जुए वाले लोहे के रथ में विवश कर जोता जा चुका हूं, चाबुक व रास (नथुने में डाली गयी रस्सी) के द्वारा हांका जा चुका हूं तथा नील गाय (पशु विशेष) की तरह में (मार-मार कर भूमि पर) गिराया जा चुका हूं।"
५८. “जिस प्रकार अग्नि में भैंसे को (पापी जनों द्वारा) जलाया पकाया
जाता है। उसी तरह मैं (अपने ही) पाप-कर्मों से घिरा हुआ,
कती आग में, परवश होकर, जलाया व पकाया जा चुका हूं।"
अध्ययन-१६
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