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________________ -४५. तब (वह मृगापुत्र) माता-पिता से बोला- “जैसा यह (आपका कहना) है, स्पष्ट रूप से (सामान्यतः तो) वैसा ही है। (किन्तु ऐहिक सुखों की) प्यास (स्पृहा) से रहित (व्यक्ति) के लिए इस लोक में कुछ भी (कार्य) दुष्कर नहीं होता।" “मैंने अनन्त बार शारीरिक व मानसिक भयंकर वेदनाओं को तथा अनेक बार (भयंकर) दुःखों व भयों को सहकर उनका अनुभव किया है।" ४७. “भय की खान, तथा (चार गति रूप) चार सीमाओं (या विभागों) वाले जन्म-मृत्यु रूप (सांसारिक) जंगल में, में भयंकर जन्म व मृत्यु (के कष्टों) को सहन कर चुका हूं।" ४८. “जिस प्रकार यहां अग्नि (जितनी) उष्ण है, उससे अनन्त-गुना अधिक उष्ण व दुःखमय (उष्ण) वेदनाओं को मैंने नरकों में (भोगा व) सहा है।" MEROLA ४६. “जिस प्रकार यहां शीत होती है, उससे (भी) अनन्तगुना शीतमय व दुःखमय (शीत) वेदनाओं को मैंने नरकों में (भोगा व).सहा ५०. “धधकती हुई अग्नि (दैवी विक्रिया से निर्मित अग्निवत् उष्ण पुद्गलों) में (रखे हुए) पकाने के लौह पात्रों में पैर ऊपर व सिर नीचे किए हुए तथा रोते-चिल्लाते हुए अनन्त बार पकाया गया हूं।” ५१. “महा दावाग्नि (जंगल की आग) के समान मरुस्थल में तथा 'वज्रबालुका' (नामक नदी के तटवर्ती कठोरतम कंकरीली रेत) में तथा 'कदम्बबालुका' (नामक नदी की तपती बालू रेत) में मुझे अनन्त बार जलाया गया ।” अध्ययन-१६ ३४६
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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