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________________ ३३. “तथा ताड़ना (मारपीट), तर्जना (डांट-फटकार), वध व बन्धन-परीषह, भिक्षाचर्या, याचना व अलाभ (मांगने पर भी न मिलना) (-इन सभी परीषहों को सहना) दुःखप्रद (कार्य) है।" ३४. “(भिक्षासम्बन्धी दोषों से सशंक/भीरु बने रहने की तथा उदर-पूर्ति के अतिरिक्त भोजनादि का संग्रह न करने की) जो यह 'कापोती' वृत्ति है, (वह) तथा दारुण केश लुंचन एवं घोर ब्रह्मचर्य-व्रत धारण करना (अल्पसत्व वालों के लिए तथा) महात्माओं के लिए (भी) दुःखप्रद होता है।” ३५. “हे पुत्र! तू सुकुमार है, तथा साफ-सुन्दर रहने (के स्वभाव) वाला है (अतः) सुख भोगने के (ही) लायक है। हे पुत्र! श्रमण-चर्या को पालने के लिए वास्तव में तू समर्थ नहीं है।" ३६. “हे पुत्र! (श्रमण-चर्या में) जीवन-पर्यन्त विश्राम नहीं है। गुणों (के अर्जन व रक्षण) का जो महाभार है, (उसे) गुरुतर (भारी) लोहे के भार की तरह (जीवन-पर्यन्त) वहन करना दुष्कर है।" ३७. “जिस प्रकार, आकाश-गंगा के स्रोत को, तथा (सामान्य नदी आदि के) प्रतिस्रोत (प्रवाह से विपरीत दिशा) को एवं बाहुओं से सागर को तैर (कर उसे पार कर) पाना दुष्कर होता है, (उसी तरह) गुणों (संयम आदि) के समुद्र को तैर कर पार करना (दुष्कर होता है।)" ३८. “(हे पुत्र!) संयम बालू के ग्रास की तरह स्वाद-रहित होता है, और तप का आचरण (भी) तलवार की धार पर चलने की तरह दुष्कर होता है।" अध्ययन-१६ ३४५
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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