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६. (उपर्युक्त) कुतिया, सूअर व (दुराचारी) व्यक्ति की दुर्गति (या
दृष्टान्त) को सुनकर, आत्म-कल्याण का इच्छुक (साधु) स्वयं को 'विनय' में प्रतिष्ठित करे ।
७. इसलिए 'विनय' का आचरण करे, जिसके फलस्वरूप 'शील'
(रत्न) प्राप्त हो । बुद्ध पुत्र (अर्थात् आचार्यादि के पुत्रवत् प्रिय) एवं मोक्षार्थी (शिष्य) को कहीं से भी निष्कासित नहीं किया जाता।
आचार्य/गुरु के समीप सदा अतिशान्त-चित्त रहे, तथा वाचाल न बने । (उनसे) अर्थयुक्त (अर्थात् मोक्ष-प्राप्ति आदि से सम्बद्ध उपयोगी व शास्त्रीय वचनों की) शिक्षा ग्रहण करे, किन्तु निरर्थक (वचनों) को छोड़ दे।
६. अनुशासन में रहता हुआ पण्डित/ज्ञानी (शिष्य) क्रोध न करे,
(अपितु) क्षमाभाव का सेवन करे । क्षुद्र व्यक्तियों के साथ संसर्ग, हंसी (उपहास) तथा क्रीड़ा का त्याग कर दे।
१०. (शिष्य) क्रोधवश मिथ्या-भाषण (या नीच-कर्म) न करे, और न
ही अत्यधिक बोले (बकवास न करे)। यथासमय अध्ययन करे और उसके बाद एकाकी 'ध्यान' करे ।
११. (यदि) अकस्मात् क्रोध-वश असत्य-भाषण (या नीच-कर्म) हो
जाए तो उसे कभी भी छिपाये नहीं। किये (कर्म) को किया है ऐसा कहे, और न किये (कर्म) को 'नहीं किया' ऐसा कहे ।
अध्ययन १