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६. मृगापुत्र उस (मुनि) को निर्निमेष दृष्टि से देखता हुआ (स्मरण
कर सोचने लगा कि) मुझे लगता है मैंने पहले (भी) कभी ऐसा रूप कहीं पर देखा है।
७. साधु के दर्शन होने से, उस (मृगापुत्र) के अध्यवसायों
(अन्तःकरण परिणामों) के शुद्ध होने पर, 'मूर्छा' (सघन चित्त-वृत्ति गहन चिन्तन) को प्राप्त अथवा विगत मोह/मोह कर्म के नष्ट होने पर उस मृगापुत्र को 'जाति-स्मरण' (ज्ञान) उत्पन्न हो गया। (पूर्व-जन्म की स्मृति रूप) संज्ञी-समनस्क ज्ञान के उत्पन्न होने पर (वह मृगापुत्र अपने) पूर्व-जन्म को स्मरण करने लगा- “में (तो) देवलोक से च्युत होकर मनुष्य-भव में आया हूँ।”
६. जाति-स्मरण ज्ञान के उत्पन्न होने पर महर्द्धिक मृगापुत्र को
अपने पूर्व-जन्म की तथा (वहां) पूर्व-अनुष्ठित श्रमणचर्या की (भी) स्मृति हो आई।
१०. (फलस्वरूप, वह मृगापुत्र) विषयों से विरक्त तथा संयम
(सम्बन्धी अनुष्ठान) में अनुरक्त होता हुआ (अपने) माता-पिता के पास जाकर यह वचन कहने लगा
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“मैंने (पूर्व जन्म में) पांच महाव्रतों (और उनके माहात्म्य) का श्रवण किया है, नरकों में तथा तिर्यंच (पशु) योनियों में (होने वाले) दुःख (सुने या भोगे) हैं। (अब मैं इस संसार-) सागर से काम-विरक्त हो गया हूँ। हे माता! (मैं तो) प्रव्रज्या ग्रहण करूंगा। आप (मुझे इसकी) अनुमति प्रदान करें ।"
अध्ययन-१६
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