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________________ दुराग्रह उसकी प्रेरक-शक्ति नहीं बनी। तर्कों की पैंतरेबाजी उसका रूप नहीं बना। विभिन्न दृष्टियों से सत्य को पूर्णत: देखने-दिखाने व समझने-समझाने की नीयत उसकी प्रेरक शक्ति बनी। सत्य-ज्ञान का सहज आदान-प्रदान उसका रूप बना। जितेन्द्र-प्रवर्तित-धर्म का स्वरूप उस ज्ञान-वार्ता से स्पष्टत: उजागर हुआ। जिन-शासन की प्रभावना हुई। प्रमाणित हुआ कि सत्य को पूर्णत: देखने, समझने व उजागर करने की क्षमता क्रियावाद, अक्रियावाद, विनयवाद या अज्ञानवाद जैसे किसी भी एकान्तवाद में नहीं। यह क्षमता केवल अनेकान्तवाद में है। वही आत्मा के विषय में निश्चय-कथन करने में सक्षम है। वह वर्तमान इन्द्रिय-गम्य जीवन के आगे-पीछे भी देख सकता है। ज्ञान को मुसीबत मानकर वह उस से पल्ला नहीं झाड़ता। अज्ञान में सुख नहीं मानता। ज्ञान का उसके लिये आत्यंतिक महत्त्व है। विनय शीलता का महत्त्व उसके लिये कम नहीं परन्तु विनयशीलता के अतिरिक्त भी जो कुछ है, वह उसे दिखाई देता है। इसके विपरीत एकान्तवाद एक ही पक्ष को सम्पूर्ण मान लेता है। अनेकान्तवाद ज्ञान की असीम सम्भावना है। आत्म-कल्याण की असीम सम्भावनाओं का स्रोत है। विद्वमैत्री का निर्माता है। संजय व क्षत्रिय राजर्षि की वार्ता तयुगीन एकान्तवादों की चर्चा करते हुए अनेकान्तवाद का स्वरूप एवम् महत्त्व उद्घाटित करती है। वार्ता दो राजर्षियों के मध्य हुई थी। उसमें जिनेन्द्र-प्ररूपित-मार्ग पर अग्रसर होते हुए अनुत्तर गति प्राप्त करने वाले चक्रवर्ती सम्राटों का वर्णन हुआ। उनके महान् त्याग का वर्णन हुआ। राजा से ऋषि बने व्यक्तित्वों ने मानों अपने-आप से और दूसरों से कहा, "उन की तुलना में हमारा त्याग कुछ भी नहीं। उन के ज्ञान की तुलना में हमारा ज्ञान कुछ भी नहीं। उन की साधना की तुलना में हमारी साधना कुछ भी नहीं।" अहंकार-शून्यता की यह स्थिति वास्तव में अपने-आप में एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। यह यशाकांक्षा का त्याग है। विनयशीलता का उत्कर्ष है। आगामी ज्ञान व गुणों के लिये सुपात्रता का खुला द्वार है। जिनके जीवन में यह स्थिति है, उन का परम कल्याण होकर ही रहेगा, इस सत्य की मौन अभिव्यंजना है। जिनेन्द्र प्रवर्तित जीवन का एक रूप है। सर्वोत्तम जीवन की एक झलक है। सर्वोत्तम जीवन के लिये प्रेरित करने के साथ-साथ वैचारिक ऊहापोह पें न उलझने देने तथा मिथ्या व अपूर्ण ज्ञान से रक्षा करने के कारण भी प्रस्तुत अध्ययन की स्वाध्याय मंगलमय है। 00 अध्ययन-१६ ३०६
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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