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(सक)ता है, अथवा केवली (भगवान्) द्वारा उपदिष्ट 'धर्म' से भ्रष्ट हो (सकता है। इसलिए (यह कहा है कि) निर्ग्रन्थ एक आसन पर स्त्रियों के साथ न बैठते हुए (संयम-मार्ग में) विचरण करे।
सूत्र-७. (चतुर्थ ब्रह्मचर्य-समाधि-स्थान) (जो) स्त्रियों की मनोहर
(आकर्षक) एवं मनोरम इन्द्रियों (व अंगोपांगों) का अवलोकन (राग-पूर्वक देखना) नहीं करता है, (और) न ही (उनके बारे में) चिन्तन-मनन करता है, वह 'निर्ग्रन्थ' है । ऐसा क्यों? (उक्त प्रश्न के उत्तर में) आचार्य ने कहा-स्त्रियों के इन्द्रियों (व अंगोपांगों) का अवलोकन व चिन्तन-मनन करने वाले ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ के ब्रह्मचर्य के विषय में (स्वयं को व दूसरों को) शंका हो (सकती है, या फिर कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न हो (सक)ती है, अथवा (ब्रह्मचर्य का) नाश (भी) हो (सकता है, या फिर उन्माद (रोग) को (भी) प्राप्त कर (सकता है, या दीर्घकालिक रोग व आतंक हो (सकता है, अथवा 'केवली' (भगवान्) द्वारा उपदिष्ट 'धर्म' से भ्रष्ट हो (सकता है। इसलिए (ऐसा कहा है कि) स्त्रियों की मनोहर व मनोरम इन्द्रियों (व अंगोपांगों) का अवलोकन तथा (उसके विषय में) चिन्तन-मनन निर्ग्रन्थ न करे ।
सूत्र-८. (पंचम ब्रह्मचर्य समाधि-स्थान-) (जो मिट्टी आदि की) दीवार
के अन्दर (या ओट) से, परदे के अन्दर (या ओट) से, तथा (पक्की) दीवार के अन्दर से (या ओट से) स्त्रियों के कूजन (रतिक्रीड़ा), रोदन (रतिकलह आदि), गीत, हास्य (कहकहे आदि), स्तनित (गर्जन), क्रन्दन या विलाप के शब्दों को नहीं सुनता है, वह 'निर्ग्रन्थ' है।
अध्ययन-१६
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