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अध्ययन - सार :
'निदान' (भोगाभिलाषा-संकल्प), विषय-भोग सेवन व पूजा-प्रतिष्ठासत्कार आदि की अभिलाषा, रागादि मनोविकार, सजीव या निर्जीव पदार्थों में आसक्ति, संयम - विनाशक व्यक्तियों की संगति, वैद्यकं-निमित्तविद्या- मंत्रतंत्र-शिल्पविशेष या अन्य लौकिक विद्याओं से जीविका-यापन, ऐहलौकिक लाभ के लिए परिचित व्यक्तियों की संस्तुति या उनके साथ परिचय बढ़ाना, राज-वर्ग या अन्य प्रभावशाली व्यक्तियों व शिल्पकारों की प्रशंसा या पूजा, सदोष व अकल्प्य आहार, अपने कुल व तप आदि का परिचय देकर भिक्षा-याचना, आहार आदि न मिलने पर द्वेष या निन्दा, मन-वचन-शरीर से दूसरों के लिए बाधक, निन्दक व पीड़ाकारक होना, परीषहों में या भयोत्पादक शब्दों को सुन कर घबरा जाना, रोगादि पीड़ाओं के समय आतुर होकर स्वजन-स्मरण, अन्य की चिकित्सा करना या कराना, माया-कपट से पूर्ण आचरण, रात्रि भोजन व रात्रि विहार, धर्माचरण में प्रमाद या असंयमाचरण-ये सब कार्य साधु के लिए त्याज्य माने गये हैं। इनमें से कोई भी कार्य सद्भिक्षु नहीं करता, यदि करता है तो वह मात्र वेशधारी द्रव्यभिक्षु है, सद्भिक्षु नहीं।
इसके अतिरिक्त, सद्भिक्षु तत्त्वज्ञानी, विविध मतों/वादों का ज्ञाता होकर भी स्वधर्म में स्थिर, तपस्वी, संयमी, हेयोपादेय-कुशल, समदर्शी, समभावी, शान्त, परीषहजयी, कषाय-जेता, शुद्ध आत्म-स्वरूप की प्राप्ति के लिए ही दत्तचित्त, मन-वचन-शरीर से संवृत्त-आत्म-रक्षक, निर्दोष व आगमोक्त विधि से जन-साधारण के घरों से प्राप्त अल्प व नीरस भिक्षा पर संयमी - जीवन को सुरक्षित रखने वाला, अप्रतिबद्ध विहारी तथा केवल संयम को समर्पित होता है।
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उत्तराध्ययन सूत्र
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