________________
RAPETITIO
१५. लोक में नाना प्रकार के (प्रचलित धार्मिक दार्शनिक) वादों को जान कर (भी जो रत्नत्रय से, आत्महित-साधक सदनुष्ठान से, ज्ञान व क्रिया-इन दोनों से, तथा साधु-संघ से) 'जुड़ा' हुआ रहता है, 'खेद' (संयम-चर्या, वैयावृत्य, स्वाध्याय आदि कष्टप्रद प्रवृत्तियों) का अनुगमन करता है, शास्त्रज्ञ (परमार्थ-ज्ञाता) है, प्राज्ञ (हेय-उपादेय-सम्बन्धी बुद्धि से तथा रत्नत्रय के लाभ से सम्पन्न) है, (राग-द्वेष व परीषह आदि पर) विजयशील होते हुए 'सर्वदर्शी' (सभी को समता-भाव से आत्मवत् देखने-समझने वाला) या 'सर्वदंशी' (रुचिकर या अरुचिकर सभी प्रकार के भोजन को समभाव से ग्रहण करने वाला) होता है, उपशान्त है, और (किसी के लिए भी मन-वचन व काया से) विघ्न-बाधा पैदा करने वाला नहीं होता, वह (ही वास्तव में) 'भिक्षु' है ।
१६. जो शिल्पजीवी नहीं होता, जिसका (कोई) घर नहीं होता, जिसके (शत्रु व) मित्र नहीं होते, जो इन्द्रिय-विजयी तथा सभी तरह (के परिग्रहों आदि के बन्धन) से मुक्त रहता है, जिसके कषाय मन्द होते हैं, जो लघु-अल्प (हलका, नीरस एवं अल्प, परिमित) भोजन करता है, और जो घर-बार छोड़ कर 'अकेला' (वीतराग धर्म में तथा एकमात्र 'संयम' में स्थित, अथवा अन्य साधुओं की सहायता पर आश्रित न रहने वाला होकर) विचरण करता है, वह (ही वास्तव में) 'भिक्षु' है ।
- ऐसा मैं कहता हूँ ।
अध्ययन- १५
२६७
5