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पन्द्रहवाँ अध्ययन : सभिक्षुक
१. ' (श्रुत चारित्र रूप) धर्म को स्वीकार कर, मुनि-चर्या का आचरण करूंगा' - (इस भावना या संकल्प के साथ, जो रत्नत्रय से, आत्महित-साधक सदनुष्ठान से, ज्ञान व क्रिया इन दोनों से, एवं साधु-संघ से) 'जुड़ा हुआ रहता है, (जो) सरल या संयममय आचरण वाला, 'निदान' (विषय-सुख-आसक्ति के संकल्प व प्राणि-हिंसा आदि कर्मबन्ध-हेतुओं) का उच्छेद करने वाला, संस्तव प्रशंसा/स्तुति और (माता-पिता व मित्र वर्ग आदि के परिचय) का त्याग कर काम-भोगों की पुनः कामना न करने वाला (या मोक्ष का इच्छुक), (अपनी जाति व तपश्चर्या आदि को) अज्ञात रखकर (ही) भिक्षा-चर्या करने वाला, और जो (अप्रतिबद्ध होकर) विहार करने वाला होता है, वह (ही वास्तव में) 'भिक्षु' है ।
अध्ययन- १५
२. राग-उपरत (आसक्ति से रहित) अथवा रात्रि-उपरत (रात्रि-भोजन व रात्रि-विहार से निवृत्त) होकर, 'प्रमुख' (या प्रशस्तसंयम-रूप धर्म-कार्य) में विचरण करने वाला है, और (असंयमादि से) विरत, वेद (आगमों) का ज्ञाता होने के कारण आत्म-रक्षक, प्राज्ञ (हेय-उपादेय की बुद्धि से या रत्नत्रय की प्राप्ति से युक्त), तथा (राग-द्वेषादि व परीषहों पर) विजयशील होते हुए 'सर्वदर्शी' (सभी को समता-भाव से आत्मवत् देखने-समझने वाला) या -सर्वदंशी (रुचिकर व अरुचिकर दोनों प्रकार के भोजन को समभाव से ग्रहण करने वाला) होता है, एवं (जो) किसी भी (सजीव-निर्जीव वस्तु) में आसक्त नहीं होता, वह (ही वास्तव में) ‘भिक्षु' है।
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