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________________ १७. (पुत्रों का उत्तर) “धर्म की धुरा (को वहन करने) के प्रकरण या प्रसंग में धन या स्वजन अथवा काम-भोगों का क्या प्रयोजन है? हम (तो) गुण-समूह (रत्नत्रय और अठारह हजार शीलांग) को धारण करने वाले, तथा भिक्षा-(वृत्ति) का आश्रय लेकर 'बहिर्विहार' (ग्रामादि के बाहर या निर्द्वन्द्व विचरण) करने वाले 'श्रमण' बनेंगे।" १८. (नास्तिकता का पाठ पढ़ा कर मुनि-धर्म से विमुख करने के उद्देश्य से पिता का कथन-) “हे पुत्रो! जैसे अरणि में (पहले से अविद्यमान) अग्नि (उत्पन्न होती है, और) दुग्ध में घृत व तिलों में तैल (पहले से असत् होते हुए भी) उत्पन्न हो जाता है, उसी प्रकार (पंचभूत-संघात/समुदाय रूप) शरीर में भी जीव उत्पन्न होते हैं, (शरीर-नाश होते ही) नष्ट हो जाते हैं, (तदनन्तर) उनका अस्तित्व विद्यमान नहीं रहा करता।" १६. (पुरोहित-कुमारों का पिता को प्रत्युत्तर-) “आत्मा (वास्तव में) अमूर्त होने के कारण इन्द्रियों से ग्राह्य नहीं हो पाती। चूंकि वह अमूर्त है, इसीलिए वह नित्य (भी) है। आत्मीय (रागादि) भाव (ही) नियत रूप से उसके 'बन्ध' के कारण हैं, और इस ‘बन्ध' को ही 'संसार' का हेतु कहा जाता है।" २०. “जिस प्रकार, हम धर्म से अनभिज्ञ होते हुए, मोहवश पहले पाप-कर्म का आचरण किया करते थे। (वास्तविक धर्म के ज्ञान व अनुष्ठान में अब तक) आप (ही) हमारे अवरोधक बने रहे, और हमारे पाप-कार्यों को आप संरक्षण भी देते रहे, (किन्तु अब हम पहले-जैसा) वह आचरण पुनः नहीं करेंगे।" २१. “यह लोक 'अभ्याहत' (अर्थात् चारों ओर से प्रताड़ित/पीड़ित) हो रहा है, यह चारों ओर से घिर चुका है, 'अमोघा' आती चली जा रही है, (इसलिए) हमें घर में आनन्द/सुख नहीं मिल रहा है।" अध्ययन-१४ २४१
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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