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________________ २७. “(यह) महर्षि ‘आशीविष' (लब्धि से सम्पन्न) हैं, उग्र तपस्वी हैं, घोर व्रती तथा घोर पराक्रमी (पुरुषार्थी) हैं। भिक्षा के समय जो (तुम लोग) भिक्षुक को पीड़ित कर रहे हो, (वह मानों) पतंगों की सेना की तरह (स्वयं) आग पर झंझापात (उड़-उड़ कर गिरना) कर रहे हो (अर्थात् स्वयं आग में कूद रहे हो)। २८. अगर तुम अपना जीवन व धन (सुरक्षित रखना चाहते हो तो सभी जनों के साथ तुम लोग (एकत्रित होकर) आओ, और (नत-) शीर्ष से इनकी शरण ग्रहण करो। यदि ये कुपित हो जायें (तो समूचे) लोक को भस्म कर दें।" २६. (यक्षों के प्रकोप से उन छात्र-कुमारों की दुर्दशा यह हुई कि) उनके मस्तक पीट की ओर झुक गए थे, भुजाएं फैल गई थीं, वे निश्चेष्ट (मूर्च्छित) हो गए थे, आंखें खुली की खुली रह गई थीं, मुख से रुधिर बहने लगा था, मुंह ऊपर की ओर तथा जीभ व आंखें बाहर की ओर निकल आई थीं। ३०. उन (छात्र-कुमारों) को काठ की तरह (निश्चेष्ट पड़े) हुए देख कर, वह (पुरोहित) ब्राह्मण उदास व चिन्ताकुल होकर स्वपत्नी-सहित उन ऋषि को प्रसन्न करने लगा (और कहने लगा) भन्ते! अवहेलना व निन्दा (जो हमारी ओर से आपकी हुई है, उस) को आप क्षमा कर दें। ३१. “भन्ते! अज्ञानी व मूढ़ बालकों ने जो (आपकी) अवज्ञा की है, उसे आप क्षमा कर दें। ऋषि (तो) 'महाप्रसाद' (अत्यधिक प्रसन्नचित्त रहने वाले) हुआ करते हैं। मुनि (तो) कुपित हुआ ही नहीं करते ।” ३२. (मुनि का कथन-) “मेरे मन में (तो) कोई द्वेष न पहले था, न अभी है, और न आगे होगा। (वास्तविकता तो यह है कि) यक्ष मेरी वैयावृत्य (सेवा) कर रहे हैं, इस कारण से ये कुमार प्रताड़ित हुए हैं।" अध्ययन-१२ २०५
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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