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२१. (भद्रा ने कहा-) “देव-अभियोग (अर्थात् यक्ष के प्रभावपूर्ण अलंघ्य
आदेश) से प्रेरित किये गये (मेरे पिता) राजा ने (मुझे एक मुनि को) समर्पित किया था, (किन्तु उसने मुझे) मन से (भी) नहीं चाहा था। राजाओं व इन्द्रों से (भी) पूजित जिन (निस्पृह) ऋषि
ने मेरा परित्याग किया था, ये वे (ही ऋषि) हैं।" २२. "स्वयं कोशल देश के राजा मेरे पिता द्वारा समर्पित की गई मुझ
को, जिसने तब नहीं चाहा (तथा अंगीकार नहीं किया) था, ये उग्र तपस्वी, इन्द्रिय-विजयी, संयमी, ब्रह्मचारी महात्मा वे ही हैं।"
२३. “ये (तो) महान् यशस्वी, महानुभाग (अचिन्त्य शक्ति व
महाप्रभाव वाले, या अनुग्रह-निग्रह में समर्थ), दुर्धर व्रती तथा (कषायादि-विजय में) घोर पराक्रमी हैं। ये अवहेलना के योग्य नहीं हैं, इनकी अवहेलना मत करो। (कहीं) तुम सब को (ये
अपने) तेज से भस्म न कर दें !" २४. (पुरोहित की) पत्नी उस 'भद्रा' के इन सुभाषित वचनों को
सुनकर, ऋषि की विशेष परिचर्या व विरोध से रक्षा करने के उद्देश्य से (उस तिन्दुक यक्ष के अन्य साथी) यक्ष (भी आ गए,
और वे उन क्रुद्ध ऋषि) कुमारों को (पीटने से) रोकने लगे
(अथवा उन कुमारों को वे उठा कर जमीन पर पटकने लगे)। २५. वहां वे भयंकर स्वरूप वाले असुर आकाश में खड़े हुए (ही)
उन (कुमार) जनों को मारने-पीटने लगे। (मुंह से) रक्त का वमन करते हुए तथा क्षत-विक्षत शरीर वाले उन (कुमारों) को देख कर, भद्रा पुनः यह कहने लगी
२६. “जो (तुमने) भिक्षु की अवमानना की है, वह (मानों
दुस्साहसवश) पहाड़ को नखों से खोदा है, दांतों से लोहे को चबाया है, और पांवों से (धधकती) अग्नि को रौंदा या कुचला है। ऐसा करके तुमने अपने नखों, दांतों व पांवों को ही
क्षतविक्षत किया है)।" अध्ययन-१२
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