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________________ उसके कर्मों से होती है। कर्म ही उस का भविष्य रचते हैं। उसे संवारते या बिगाड़ते हैं। __ हरिकेशबल मुनि जन्म से चाण्डाल थे। कर्म से मुनि थे। चाण्डाल उनके शरीर का कुल था। उनकी आत्मा का कुल था-जिन धर्म। उनकी आत्मा की जाति थी-श्रमण संस्कृति। उनकी आत्मा का रूप था-संयम। यही निर्णायक था। शरीर की जाति या कुल या रूप निर्णायक नहीं थे। इस से प्रमाणित हुआ कि आत्म-कल्याण का सभी को समान अधिकार है। नीच से नीच कहलाने वाला भी संयम के मार्ग पर अग्रसर होते हुए देव-पूजित व यक्षाराधित हो सकता है। मुक्ति-धाम के सर्वोच्च शिखर तक पहुंच सकता है। स्व-पर-कल्याण कर सकता है। संयम-साधक की आशातना दुष्कर्म है। इसका परिणाम कष्टकर होता है। हरिकेशबल मुनि पर थूकने का राजकुमारी भद्रा को और उनको अपमानित करने का ब्राह्मण-पुत्रों को दु:खद परिणाम भोगना पड़ा। ऐसे अवसरों पर भी हरिकेशबल मुनि समभाव के शिखर पर आसीन रहे। आर्त या रौद्र ध्यान ने उनके अंतस्तल का स्पर्श तक नहीं किया। राजकुमारी का विवाह प्रस्ताव आया तो ब्रह्मचर्य महाव्रत उनके चरित्र में और भी अधिक जगमगाने लगा। वे संयम में लीन थे। संयम में ही लीन रहे। निर्मल संयम की प्रतिमूर्ति थे हरिकेशबल मुनि। ब्राह्मण-पुत्रों ने उनका अपमान किया था। उन्होंने उन्हें सच्चे यज्ञ का स्वरूप व आत्म-कल्याण का मंत्र बतलाने की उन पर अहैतुकी कृपा की। प्रमाणित हुआ कि श्रमण का बाह्य जगत् में कोई शत्रु नहीं होता। भीतर के शत्रुओं को जीतना ही सच्ची विजय है, जिसे श्रमण प्राप्त करता है। श्रमण-धर्म का वास्तविक स्वरूप उद्घाटित करने के साथ-साथ आत्म-कल्याण हेतु प्रबल प्रेरणा प्रदान करने के कारण भी प्रस्तुत अध्ययन की स्वाध्याय मंगलमय है। 00 अध्ययन-१२ १६३
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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