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________________ अध्ययन-सार : वृक्ष के पके पत्ते की तरह तथा कुशाग्र स्थित जल-बिन्दु की तरह जीवन नश्वर है। अल्पकालिक यह जीवन भी अनेक प्रकार के विघ्नों से भरा होता है। इसलिये आत्म-कल्याणकारी साधना का जो कुछ भी थोड़ा-बहुत अवसर प्राप्त हो, उसे व्यर्थ गंवाना उचित नहीं। इस दृष्टि से क्षण भर भी प्रमाद मत करो। दुष्कर्मों का परिणाम विनाशकारी होता है। उसके फलस्वरूप एकेन्द्रिय व तिर्यंच योनियों में सुदीर्घ काल तक या कभी चिरकाल तक भ्रमण करना पड़ सकता है, अतः मनुष्य-जन्म अत्यन्त दुर्लभ है। प्रमादी जीव प्रमाद-वश अपने शुभ-अशुभ कर्मों के कारण संसार में निरन्तर भ्रमण करता रहता है और कभी मुक्त नहीं हो पाता। दुर्लभ मनुष्य-जन्म मिलने पर भी, इन्द्रियों की स्वस्थता, उत्तम धर्म-श्रवण का अवसर, धर्म के प्रति श्रद्धा-ये क्रमशः उत्तरोत्तर अधिकाधिक दुर्लभ होते हैं। धर्म श्रद्धा होने पर भी काम-भोगों में आसक्ति होने के कारण धर्माचरण की प्रवृत्ति तो और भी अधिक दुर्लभ है। जो अनगार-चर्या को वरण करने के लिये काम-भोगों को त्याग चुका है, अपने चिर-परिचितों व भौतिक सम्पदा के प्रति स्नेह तोड़ चुका है, वह यदि पुनः प्रमाद कर काम-भोगादि के प्रति आसक्त हो जाता है तो वह मानों अपने वमन किये हुए को ही पीता है। इस दृष्टि से भी अनगार साधु को क्षण भर भी प्रमाद नहीं करना चाहिए। आज तो साक्षात् जिनेन्द्र तथा उनके द्वारा उपदिष्ट न्याय-मार्ग उपलब्ध है, भावी पीढ़ियों के लिये यह स्थिति कहीं सुलभ न हो, अतः प्राप्त सुअवसर में क्षण भर भी प्रमाद नहीं करना चाहिए। हे गौतम! तू तो महान् संसार-समुद्र को पार करते हुए किनारे पहुंच चुका है। जब लक्ष्य अतिनिकट आ चुका हो तो भी प्रमाद नहीं करना चाहिए। उक्त भगवद्-वचन को श्रवण व हृदयंगम करने वाले गौतम स्वामी ने रागादि का उच्छेद कर मुक्ति प्राप्त की। १७० उत्तराध्ययन सूत्र
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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