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जीवन के इस मोड़ पर भी भगवान् महावीर ने उन्हें समाधान प्रदान किया था। उन के माध्यम से सभी मुमुक्षुओं को रास्ता दिखाया था। व्यक्ति और युग को एक साथ प्रतिबोधित किया था। वर्तमान और भविष्य को एक साथ सम्यक्त्व की दिशा प्रदान की थी। नश्वरता को अप्रमाद का स्रोत बताया था। नश्वरता का सार्थकतम उपयोग किया था।
गौतम स्वामी का भगवान् महावीर के प्रति सूक्ष्म राग था, जो उन के 'यथाख्यात चारित्र' का प्रतिबन्धक होते हुए उनकी केवल-ज्ञान-प्राप्ति में बाधक था। भवसागर में स्वयं तैरते और दूसरों को तैराते हुए गौतम सागर के किनारे तक पहुंच चुके थे। पानी टखनों तक उतर चुका था। वहीं वे ठिठक गये। जिन्हें उन्होंने तैरना सिखाया था, उन्हें किनारे तक जाते हुए देखते रहे। अपने से आगे निकलते देखते रहे। प्रभु ने उन पर अंतिम कृपा भी की। ज्ञान का हाथ उनकी ओर बढ़ाया। गौतम ने उसे थामा। उस हाथ के प्रति उनका सूक्ष्म राग समाप्त हुआ। थोड़ा-सा शेष प्रमाद भी समाप्त हुआ। थोड़ा सा शेष पानी भी समाप्त हुआ। कैवल्य प्राप्त हो गया। यथाख्यात चारित्र जगमगाने लगा।
प्रस्तुत अध्ययन भगवान् महावीर द्वारा गौतम स्वामी को दिया गया उद्बोधन है। यह प्रत्येक मुमुक्षु और प्रत्येक जिज्ञासु के लिये प्रासंगिक है। इस से मनुष्य को अपनी दुर्लभ एवम् वास्तविक सम्पदा का बोध होता है। समय की मूल्यवत्ता का अनुभव होता है। उसके सच्चे उपयोग की दृष्टि मिलती है। यह आश्वस्ति मिलती है कि इस दृष्टि से जी कर कोई भी गौतम हो सकता है।
क्षण-मात्र के प्रमाद का भी यहां बारम्बार निषेध किया गया है। यह आवृत्ति ही नहीं है। वस्तुतः प्रत्येक निषेध के अर्थ में पहले किये गये निषेध या निषेधों की अर्थ-ऊर्जा भी सम्मिलित है। इसलिये प्रमाद-निषेध वही होने पर भी उसकी गम्भीरता उत्तरोत्तर प्रगाढ़ होती जाती है। उसका प्रकाश उत्तरोत्तर सघन होता जाता है। उसकी प्रभाव-क्षमता उत्तरोत्तर व्यापक और गहन होती जाती है। यह एक महान् कविता का कलात्मक ढांचा है।
अनेक सत्य हैं जीवन के, जिन का एक ही निष्कर्ष है-अप्रमत्त रहो। वे सभी सत्य यहां उजागर हुए हैं। उन का ज्ञान देने के साथ-साथ प्रमाद के अनेक रूपों से बचने, दुर्लभ सच्ची सम्पदा का सदुपयोग करने और सम्यक् राह पर क्षण-प्रतिक्षण जीवन के अग्रसर होते रहने की वांछनीय अनिवार्यता को रेखांकित करने के कारण भी प्रस्तुत अध्ययन की स्वाध्याय मंगलमय है।
अध्ययन- १०
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