SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 177
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५०. इस अर्थ (भरी बात) को सुनकर, (प्रत्यक्ष उपलब्ध भोगों को छोड़कर, अदृश्य व संदेहास्पद भोगों की कामना में क्या औचित्य है-इसे स्पष्ट करने के लिए) हेतु व कारण (की जिज्ञासा) से प्रेरित देवेन्द्र ने तब 'नमि' राजर्षि को यह कहा ५१. "हे पार्थिव! (पृथ्वीपते) आश्चर्य की बात है कि आप अभ्युदय में भोगों को (इतने अधिक धन वैभव के होते हुए भी, प्रत्यक्ष में सहजतया उपलब्ध या अद्भुत काम-भोगों को तो) छोड़ रहे हैं, और अनुपलब्ध (संदिग्ध सत्ता वाले) काम-भोगों की चाह कर रहे हैं (संभवतः आप निरर्थक) संकल्प-विकल्पों से (ही स्वयं) प्रताड़ित हो रहे हैं-कष्ट पा रहे हैं।" ५२. इस अर्थ (भरी बात) को सुनकर, (प्राप्त भौतिक भोगों की चाह तो मुझ में नहीं है, अप्राप्त पारलौकिक भोगों की भी चाह नहीं है, क्योंकि मैं मोक्षाभिलाषी हूँ-इस तथ्य को स्पष्ट करने के लिए) हेतु व कारण (को उपस्थापित करने के उद्देश्य से) प्रेरित 'नमि' राजर्षि ने तब देवेन्द्र को यह कहाः५३. “(सभी प्रकार के) काम-भोग 'शल्य' (कांटे की तरह पीड़ाकारक) हुआ करते हैं, (ये) काम-भोग ‘विष' (जैसे आध्यात्मिक जीवन को हरण करने वाले) हैं, काम-भोग 'आशीविष' सर्प के समान (सुन्दर होते हुए भी स्पर्श मात्र से प्राणहारक) होते हैं। (जो) काम-भोगों की चाह रखते हैं, (वे) अकाम (परिस्थितिवश काम-सेवन का अवसर प्राप्त न कर सकने वाले) हों, (तब भी) दुर्गति में जाते हैं। ५४. “क्रोध से (नरक आदि) नीच गति में (व्यक्ति) जाता है, मान से अधम गति (प्राप्त) हुआ करती है। माया (भी प्रशस्त/शुभ) गति (की प्राप्ति) की प्रतिघात करती है, तथा लोभ से (इस लोक व परलोक) दोनों ओर (की दुर्गतियों) का भय बना रहता है।" अध्ययन-६ १४७
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy