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३४. “दुर्जय संग्राम में दस लाख (योद्धा वीरों) को कोई जीत (भी)
ले, (किन्तु इसकी तुलना में) एक आत्मा को (अर्थात् स्वयं को) (जो) जीत लेता है, उसकी यह जीत (ही) परम (श्रेष्ठ जीत )
३५. (इसलिए स्वयं अपनी) आत्मा से ही जूझो-युद्ध करो, बाह्य
(भौतिक) युद्ध से तुझे क्या (लाभ होने वाला) है? (अपनी)
आत्मा को (स्वयं अपनी) आत्मा द्वारा जीत कर (ही व्यक्ति) सुख (शाश्वत् सुख मोक्ष या शुभ-पुण्य की वृद्धि का लाभ) प्राप्त करता
है। ३६. पांच इन्द्रियां, तथा क्रोध-मान-माया व लोभ- ये (चार कषाय), .
एवं यह आत्मा (अर्थात् मन )ये दुर्जेय हैं। (इनमें एक) आत्मा को-अपने स्वयं को-जीत लेने पर (उक्त) सभी जीत लिए जाते
३७. इस अर्थ (भरी बात) को सुनकर, (ब्राह्मण-संस्कृति में मान्य
पारलौकिक सुख-प्राप्ति के साधनों, जैसे लौकिक यज्ञ व गोदान
आदि कार्यों, में प्रवृत्त न होकर दीक्षा लेने में क्या औचित्य है-इस विषय में) हेतु व कारण (की जिज्ञासा) से प्रेरित देवेन्द्र ने तब 'नमि' राजर्षि को यह कहा
३८. "हे क्षत्रिय! (पहले आप) विपुल (बड़े-बड़े दीर्घकालीन) यज्ञ
कराएं, श्रमण-ब्राह्मणों को भोजन कराएं, दान दें, भोग भोगें, (और स्वयं) यज्ञ करें, उसके बाद (दीक्षा-हेतु) जाएं।"
३६. इस अर्थ (भरी बात) को सुनकर, (परिमित प्राणियों की रक्षा
या उपकार करने की अपेक्षा संयम-साधना से अनन्त जीवों का उपकार हो सकता है-इस विषय में) हेतु व कारण (को बताने के उद्देश्य) से प्रेरित 'नमि' राजर्षि ने तब देवेन्द्र को यह कहा
अध्ययन-६
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