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२८. “हे क्षत्रिय! (पहले आप) लुटेरों, प्राणघातक (तरीकों से सर्वस्व हरण करने वाले) (गिरहकटों) व चोरों (को दण्डित कर,) नगर का क्षेम (अमनचैन) स्थापित करें, उसके बाद (दीक्षा हेतु)
जाएं। ”
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२६. इस अर्थ (भरी बात) को सुनकर, (भौतिक सम्पत्ति लूटने वालों की अपेक्षा, आत्मिक गुणों का अपहरण करने वालों के निग्रह में ही वास्तविक धार्मिक कुशलता है-इस सम्बन्ध में) हेतु व कारण (को बताने के उद्देश्य) से प्रेरित 'नमि' राजर्षि ने तब देवेन्द्र से यह कहा
३०. (“हे ब्राह्मण!) अनेक बार (तो) लोग मिथ्यादण्ड का प्रयोग (अर्थात् अज्ञान व अहंकारादि के कारण, निरपराध को दण्डित करना, व अपराधी को छोड़ देना) कर देते हैं । (फलस्वरूप) इस (भौतिक संसार) में (अपराध) न करने वाले (भी) बंध जाते हैं (दण्डित होते हैं,) और (वस्तुतः अपराध) करने वाला छूट जाता है । "
३१. इस अर्थ (भरी बात) को सुनकर (समर्थ शासक होते हुए भी राजाओं को वश में न कर दीक्षा लेने के विषय में) हेतु व कारण (की जिज्ञासा) से प्रेरित देवेन्द्र ने तब 'नमि' राजर्षि से यह
कहा:
३२. “हे नराधिपति क्षत्रिय ! जो कुछ राजा तुम्हारे आगे (विनय से ) नहीं झुकते, (पहले) उन्हें वश में (अर्थात् अपनी अधीनता में) लाएं, उसके बाद (ही) (दीक्षा हेतु) प्रस्थान करें । "
३३. इस अर्थ से (भरी बात) को सुनकर (आत्मिक शत्रुओं को पराजित करने में ही वास्तविक वीरता व सामर्थ्य की स्थापना अन्तर्निहित है-इस तथ्य को सिद्ध करने के लिए) हेतु व कारण (को बताने के उद्देश्य) से प्रेरित 'नमि' राजर्षि ने तब देवेन्द्र से यह कहा
अध्ययन-६
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