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१७. इस अर्थ (से भरी बात) को सुनकर, (नगर-रक्षा के क्षत्रियोचित
कर्तव्य को पूरा न कर अभिनिष्क्रमण करने के विषय में) हेतु व कारण (की जिज्ञासा) से प्रेरित देवेन्द्र ने तब ‘नमि' राजर्षि से यह कहा
१८. “हे क्षत्रिय! (इस मिथिला की रक्षा के लिए) परकोटा, बुर्जवाले
नगर-द्वार, अट्टालिकाएं, (किले की) खाई, तथा सैकड़ों (शत्रुओं) को मारने वाली तोप आदि (की व्यवस्था) करवा दें, उसके बाद (दीक्षा हेतु) जाएं।"
१६. इस अर्थ (से भरी बात) को सुनकर, (अध्यात्म-नगरी की रक्षा
आदि से ही क्षत्रियोचित कर्तव्य का निर्वाह श्रेयस्कर है-इस तथ्य को सिद्ध करने वाले) हेतु व कारण (को बताने के उद्देश्य) से प्रेरित 'नमि' राजर्षि ने तब देवेन्द्र को यह कहाः
२०. ("हे ब्राह्मण!) (आत्मजयी क्षत्रिय के लिए उचित जो कर्तव्य है,
उसे ही मैं कर रहा हूँ, वह इस प्रकार है-) श्रद्धा (सम्यक्त्व) को नगर बना कर (उसकी रक्षा हेतु) तप रूप संवर को ‘अर्गला' (सहित महाद्वार बना कर), क्षमा (आदि दशविध धर्मों) के तीन (मनवचन-काय सम्बन्धी गुप्तियों) से सुरक्षित प्राकार (परकोटा/दुर्ग)
को अजेय व (सुरक्षा में) समर्थ / दृढ़ (बना कर और)। २१. सदैव (संयम रूप, या आत्मोल्लास-रूप) पराक्रम को धनुष
बनाकर, ईर्या (आदि) समितियों की प्रत्यंचा, और धृति (निश्चलता) को उसकी मूठ बना कर सत्य (रूप डोरे) से उस (धनुष)को बांधे।
२२.
तप रूपी बाणों से युक्त (उस धनुष) से कर्म रूपी कवच को भेद कर, (कर्म-शत्रु पर विजय प्राप्त कर) संग्राम से विरत मुनि 'भव' (संसार) से परिमुक्त हो जाता है।"
अध्ययन-६
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