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________________ नौवाँ अध्ययन : नमि-प्रव्रज्या १. देव लोक से च्यवन कर, ('नमि' राजा के जीव ने) मनुष्य-लोक में जन्म लिया। (उनका) मोह (दर्शन-मोहनीय) उपशान्त हो गया था। (जिसके कारण, उन्हें) पहले के (अपने पूर्व) जन्म का स्मृति-ज्ञान हो आया। २. भगवान् (अतिशय, ज्ञान, धैर्य व बुद्धि से सम्पन्न) 'नमि राजा' (पूर्व-) जन्म का स्मरण कर ‘अनुत्तर' (सर्वोत्कृष्ट) धर्म (की आराधना) में 'स्वयं सम्बुद्ध' हुए। (उन्होंने) राजगद्दी पर पुत्र को बैठा कर (प्रव्रज्या-हेतु) अभिनिष्क्रमण किया । ३. उत्तम अन्तःपुर में रहते हुए देव-लोक (के भोगों) के समान सुन्दर भोगों को भोग कर वे 'नमि' राजा (एक दिन स्वतः) प्रबुद्ध हुए (और उन्होंने) भोगों का परित्याग कर दिया। ४. भगवान् (नमि) ने नगर-जनपद सहित 'मिथिला' (राजधानी) का, तथा सेना, अन्तःपुर व समस्त परिजनों का त्याग कर अभिनिष्क्रमण किया (और वे) 'एकान्त' (अर्थात् निर्जन स्थान, एकत्व-भावना या 'रत्नत्रय' रूप मोक्ष-साधन व 'मोक्ष') में अधिष्ठित हो गए। ५. राजर्षि नमि (द्रव्य व भाव रूप से) अभिनिष्क्रमण कर प्रव्रजित हो रहे थे, उस समय मिथिला में (विलाप आदि के कारण, चारों ओर) कोलाहल होने लगा। अध्ययन-६ १२६
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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