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अध्ययन परिचय
प्रस्तुत नौवें अध्ययन में बासठ गाथायें हैं। इस अध्ययन का केन्द्रीय विषय है-सांसारिकता त्याग कर मोक्ष-मार्ग पर अग्रसर होने के औचित्य की स्थापना। राजर्षि नमि के महान् चरित्र के माध्यम से यह स्थापना साकार हुई है। इसलिये इस अध्ययन का नाम 'नमिप्रव्रज्या' रखा गया। नमि का एक अर्थ वह व्यक्तित्व भी है, जिसके तेज या प्रताप के सम्मुख शक्तिशाली शत्रु भी नमित हो जायें। नमि जब राजा थे तो शत्रु-राजा उनके समक्ष नमित हुए और जब वे ऋषि हुए तो राग, द्वेष, कषाय आदि आन्तरिक शत्रुओं पर उन्होंने विजय प्राप्त की। वे भी उनके सम्मुख नमित हुए। शक्रेन्द्र जब उनकी प्रव्रज्या की दृढ़ता परखने आये तो उनकी विविक्त प्रव्रज्या व सशक्त युक्तियों से तथा सम्यक् ज्ञान-संपन्न उनके उत्तरों से प्रभावित हो कर उनके चरणों में नमित हुए। शक्रेन्द्र को भी नमित कर सकने वाली प्रव्रज्या का वृत्तान्त प्रस्तुत करने वाला अध्ययन 'नमिप्रव्रज्या' शीर्षक की सार्थकता का एक और पक्ष है।
सत्रह सागरोपम की दीर्घ आयु वाले देवलोक के 'पुष्पोत्तर-विमान' से च्यव कर मानव-भव में आए 'नमि राजा' प्रत्येकबुद्ध थे। प्रत्येकबुद्ध वह होता है जो बाह्य घटना का निमित्त प्राप्त कर आत्म-बोध प्राप्त करता है। दाह ज्वर से ग्रस्त 'नमि' की दाह-शान्ति हेतु चन्दन घिसने वाली रानियों के कंकणों के घर्षण से जो मधुर शब्द हो रहा था, वह भी, वेदनाग्रस्त 'नमि' को सहन नहीं हो रहा था। इसलिए रानियों ने मात्र सौभाग्य सूचक एक-एक कंकण हाथ में रख कर शेष सारे कंकण उतार दिए। इस तरह जो निःशब्दता हुई, उस से 'नमि' के लिए कोलाहल-जनित अशान्ति दूर हो गई थी, यद्यपि ज्वर-वेदना तो पूर्ववत् ही थी। इस घटना ने 'नमि' के मन को आध्यात्मिक चिन्तन की दिशा में गतिशील कर दिया। अनुप्रेक्षात्मक चिन्तन के कारण 'नमि' के अन्तर में आध्यात्मिक सत्य का प्रकाश उद्भूत हुआ। वह 'सत्य' यह था कि अनेकत्व व संघर्ष ही दुःख का कारण है, और एकत्व व निर्द्वन्द्वता ही सुख-शान्ति का मूल है।
वैराग्य पूर्ण एकत्व चिन्तन से मानसिक तथा चन्दन विलेपन से शारीरिक शान्ति प्राप्त कर राजा को निद्रा आ गई। निद्रावस्था में राजा ने एक विशिष्ट स्वप्न देखा, जिससे उन्हें पूर्वजन्म का ज्ञान हो गया। इससे नमि राजा ने मुनि-दीक्षा लेने का दृढ़ संकल्प कर लिया और वे प्रातः उठते ही राज-वैभव,
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उत्तराध्ययन सूत्र