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अध्ययन-सार :
मांसलोलुप परिवार द्वारा किसी मेमने (या मेढे) को खिला-पिला कर हृष्ट-पुष्ट किया जाता है। किन्तु एक दिन उसी मेमने का वध कर अतिथि को खाने के लिए परोस दिया जाता है, उसी प्रकार अज्ञानी व्यक्ति अपने जीवन में भले ही हिंसा, असत्य, चोरी, मांस-मदिरा सेवन एवं विषय-भोग-अनुरक्ति की क्रियाओं में लिप्त होने से कुछ दिन सुखी व प्रभावपूर्ण जीवन व्यतीत कर ले, किन्तु जीवन के अन्त में उसे नरक-गति का दुःख भोगना ही पड़ता है। उसे मृत्यु के समय अपनी काया और चल-अचल सम्पत्ति को यहीं छोड़ना पड़ता है और मात्र अपने पाप-कर्मों का बोझ लिए वह नरक -गति में दुःख भोगने के लिए बाध्य होता है।
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सांसारिक तुच्छ व अल्पकालिक विषय-सुख के लिए नरकादि दुर्गति को वरण करना उसी तरह मूर्खता है, जिस प्रकार कोई काकिणी (दमड़ी या उससे भी अल्पमूल्य) के लोभ में कोई कार्षापण (सोने के बहुमूल्य सिक्के) को गंवा बैठे, या कोई राजा रसनेन्द्रिय के वशीभूत हो अपथ्य आम्र-फल का सेवन कर, अपने राज्य वैभव से ही नहीं, जीवन से भी हाथ धो बैठे।
मनुष्य-जीवन मूलधन के समान है, जिसका सधर्माचरण आदि में सदुपयोग कर, ज्ञानी व्यक्ति देव-गति-सम्बन्धी दीर्घकालिक दैवी सुख रूप महनीय लाभ अर्जित करता है। इस दैवी सुख के समक्ष मानवीय जीवन के सुख उसी प्रकार नगण्य हैं, जिस प्रकार समुद्र की अगाध जल-राशि के समक्ष कुशा के अग्रभाग पर स्थित क्षणिक जल-बिन्दु। अज्ञानी व्यक्ति हिंसा आदि पापों में संलग्न हो, मानव-जीवन रूपी मूलधन को नष्ट कर देते हैं, और उस दुर्गति (नरक या तिर्यंच गति) का वरण करते हैं जहां से निकल पाना चिरकाल तक कठिन होता है। अतः विवेकशील व धीर व्यक्ति धर्म-शिक्षाओं का अनुसरण कर संयम व्रत का पालन कर, या तो पुनः मनुष्य-जीवन धारण करते हैं, या (मुक्ति-सुख के लिए अपेक्षित व्रताचरण सम्भव न होने की स्थिति में) देव-गति प्राप्त करते हैं। देव-गति से च्युत होकर भी पुन: विशिष्ट सुख-वैभव से पूर्ण मनुष्य-जीवन प्राप्त करते हैं। किन्तु अविवेकी व्यक्ति अधर्ममय जीवन अंगीकार कर नारकीय दुःख भोगते हैं। अत: मुनि-चर्या का साधक ज्ञानी-अज्ञानी के उक्त अन्तर को सम्यक्तया हृदयंगम करे और विषय-सुख के अनिष्टकारी प्रलोभनों में न फंस कर तथा संयम में तत्पर होकर ज्ञानी/पण्डित जैसा जीवन व्यतीत करे।
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उत्तराध्ययन सूत्र
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