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________________ HOTELH १८. (उक्त) द्विविध गतियों को प्राप्त (अज्ञानी जीव) सदैव पराजित रहता है, उसका वहां से निकल (उद्धार हो) पाना दीर्घ काल के बाद भी (प्रायः) दुर्लभ होता है । १६. इस प्रकार हारे हुए (उक्त अज्ञानी की दशा पर स्वबुद्धिपूर्वक) सम्यक् विचारणा करके, तथा अज्ञानी व पण्डित (इन दोनों) में तुलना करके जो प्राणी मनुष्य योनि में आते हैं, वे (सुरक्षित) मूल धन के साथ ( प्रविष्ट बनिये की तरह मनुष्य-भव में) प्रविष्ट होते हैं। २०. जो मनुष्य विविध तरतमताओं वाली शिक्षाओं के साथ गृहस्थोचित सद्व्रतों (प्रकृतिभद्रता आदि प्रतिज्ञाओं, ‘मार्गानुसारी’ सद्गुणों ब्रह्मचर्यव्रत) से युक्त होते हैं, वे (आगामी भव में) मनुष्य-योनि पाते हैं, (क्योंकि) प्राणी 'कर्मसत्य' होते हैं-अर्थात् उनके कर्म- सत्य-अमोघ रूप से स्वानुरूप फलदायक हुआ करते हैं। २१. किन्तु जिन प्राणियों की शिक्षा (शास्त्रीय ज्ञान ) 'विपुल' (अणुव्रत महाव्रत आदि विषयक होने से व्यापक) होती है, जो शीलवान् (चारित्र सम्पन्न) हैं, तथा (उत्तरोत्तर गुण प्राप्ति-रूप) विशेषताओं से युक्त हैं, वे 'मूल' (धन रूप मनुष्य-योनि) का अतिक्रमण कर दीनता (व्याकुलता आदि) से रहित हो, देवत्व (रूप लाभ) को प्राप्त होते हैं । २२. इस प्रकार दीनता (व्याकुलता) से रहित भिक्षु और गृहस्थ (की सुगति) को जान कर कैसे कोई ऐसे (लाभ) को हारेगा या गंवा देगा? और (कभी) पराजित हो रहा होगा तो उसका संवेदन ( सोच-विचार या पश्चाताप भी) न करेगा ? अध्ययन-७ ড কe १०७ 5
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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