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________________ Ki 65 ६६ 3.M. अध्ययन-सार : अविद्यावान् व्यक्ति दुःख-चक्र से मुक्त नहीं हो पाता और बार-बार अनन्त संसार-सागर में डूबता-उतराता रहता है। पाप-कर्मों के कष्टप्रद फल-भोग से न तो माता-पिता आदि स्वजन ही रक्षक हो सकते हैं, और न ही चल-अचल सम्पत्ति-वैभव; इसलिए चौरासी लाख जन्म-योनियों (जाति-पथों) तथा कर्म-बंधनों की समीक्षा करता हुआ निर्ग्रन्थ सत्यान्वेषी हो, और प्राणियों के प्रति मैत्री भाव का आचरण करे। निर्ग्रन्थ इस सद्विवेक को जीवन में उतारे कि सभी प्राणियों को अपने प्राण प्यारे होते हैं। किसी भी प्राणी का घात न करे, और वैरभाव का त्याग करते हुए न तो किसी प्राणी से भयभीत हो और न ही किसी को भयभीत करे। निर्ग्रन्थ मोक्ष-प्राप्ति जैसा उच्च लक्ष्य लिए हुए चले, और आसक्ति को दुःख का मूल तथा परिग्रह को नरक-तुल्य समझते हुए अप्रमत्त होकर क्षणिक भोगों में, परिचित व्यक्तियों एवं उनके सौन्दर्यपूर्ण शरीर, वर्ण व रूप के प्रति अपनी आसक्ति व ममत्व भाव का त्याग करे। मात्र ज्ञान प्राप्त करना और पापों का प्रत्याख्यान (त्याग) न करना दुःख से मुक्ति नहीं दिला सकता। आचरण शून्य ज्ञानी कोरा 'वाग्वीर्य' है। आचरणशून्य पाण्डित्य दुःखों से त्राण नहीं दिला सकता। अतः निर्ग्रन्थ को चाहिए कि वह कर्म-बंधन के हेतुओं को समझे-बूझे, और अप्रमाद-पूर्वक संयम-धर्म का पालन करे, निर्दोष आहारादि का सेवन करे, तथा पक्षी की भांति कल की अपेक्षा न रखते हुए संग्रह-वृत्ति से दूर रहे एवं अनियत विहार करे। भगवान् महावीर ने ऐसा कहा है। हि उत्तराध्ययन सूत्र
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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