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________________ २४. इस प्रकार शिक्षा (बार-बार व्रताभ्यास) से युक्त सम्यक् व्रतधारी (श्रावक) गृहस्थावस्था में (रहता हुआ) भी चमड़ी-हड्डी से बने (औदारिक) शरीर से छूट कर, देवों के लोक में चला जाता है। २५. अब, जो संवृत (अर्थात् कर्मों के आस्रव को रोकने वाला) भिक्षु होता है, (वह इन) दो में से किसी एक (दशा को प्राप्त) होता है-या तो वह समस्त दुःखों से रहित 'मुक्त' (होता है) या महान् ऋद्धिसम्पन्न देव (होता है)। २६. (देवों के वे) आवास क्रमशः ऊपर-ऊपर 'विमोह' (अर्थात् मिथ्यात्व रूप या कामवासना-रूप या स्त्री-रूप 'मोह' की मन्दता या अभाव की स्थिति वाले), विशेष दीप्तिमान, तथा उन देवों से भरे हुए हैं, (जो) यशस्वी हैं । २७. (वे देव) दीर्घ आयु वाले, ऋद्धि-सम्पन्न, अत्यन्त दीप्ति वाले, इच्छानुसार 'रूप' बनाने वाले, हमेशा नवजात-जैसी कान्ति वाले, और सूर्य जैसी अत्यधिक प्रभा (तेज) वाले हुआ करते हैं। २८. जो 'शान्ति' (अर्थात् उपशम भाव) से परिनिर्वृत (सम्पन्न) हैं (या परिनिवृत्त-अर्थात् पापों से सर्वथा निवृत्त हो चुके हैं), वे तप व संयम की 'शिक्षा' (बार बार आसेवना) करने के अनन्तर उन (पूर्वोक्त देवलोक रूप) स्थानों को जाते हैं, चाहे वे भिक्षु हों या गृहस्थ। २६. उन संयमी, इन्द्रियजयी व सत्पूजनीय (मुनियों) का (सकाम-मरण) सुनकर, शीलवान् व बहुश्रुत (भिक्षु), मृत्यु-समय में (भी) संत्रस्त (अर्थात् उद्वेग, भय, चिन्ता आदि से ग्रस्त) नहीं हुआ करते । अध्ययन-५
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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