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________________ Fre312271121 (हेतु) हैं। वैदिक व जैन- इन दोनों धर्मों में 'कर्मसिद्धान्त' को स्वीकारा गया है । कर्म सिद्धान्त पुरुषार्थवाद को साथ लेकर चलता है। अज्ञान व प्रमाद की अवस्था में किया गया असंयममय पुरुषार्थ कर्म-बन्धन व दुःख-परम्परा का कारण होता है, तो सम्यग्ज्ञान व अप्रमाद के साथ किया गया संयममय पुरुषार्थ मोक्ष व शाश्वत सुख का कारण होता है। इस प्रकार, बन्धन व मोक्ष- इन दोनों के पीछे व्यक्ति का अपना पुरुषार्थ ही होता है। उक्त दोनों पुरुषार्थों में मोक्ष के लिए किया गया पुरुषार्थ श्रेयस्कर होता है, क्योंकि मोक्ष का अर्थ है- सदा-सर्वदा के लिए सांसारिक बन्धनों से छूट जाना । मुक्ति प्राप्त होने के बाद, पुनः दुःखदायी बन्धन की सम्भावना ही समाप्त हो जाती है। उपर्युक्त चिन्तन-प्रक्रिया में वैदिक व जैन, दोनों ही धर्म-परम्पराएं सहभागिता रखती हैं। (1) रागो य दोसो वि य कम्मबीयं । ( उत्तराध्ययन सूत्र- 32/7) राग-द्वेष (आन्तरिक परिणाम) ही कर्म - बन्धन के बीज तृतीय खण्ड 425
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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