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________________ 8889980000000000000 codawwwLAADwadam 9080804 50000888 DUTUBEntsaahisad AN आत्मा अविनाशी है। तब फिर मृत्यु के बाद वह कहां रहती है? वह अपने कर्मों के अनुरूप, नया जन्म व नया शरीर धारण करती है। नये शरीर का धारण करना ही पुनर्जन्म है। यह पूर्व शरीर रूपी पुराने वस्त्र को छोड़कर भावी शरीर रूपी नये वस्त्र को धारण करने जैसा है। पुनर्जन्म लेकर, पुराने कर्मों का कुफल-सुफल भोगता हुआ जीवन नये कर्म भी बांधता है और परिणामस्वरूप पुनर्जन्म की प्रक्रिया अनवरत चलती रहती है, बशर्ते पुराने कर्मों के क्षय तथा नवीन कर्मों के न बंधने के लिए संयम व तप का मार्ग अपनाया न जाय। जैन व वैदिक-दोनों धर्म-परम्पराओं की पुनर्जन्म के सम्बन्ध में एक समान वैचारिक चिन्तन-प्रक्रिया दृष्टिगोचर होती है। (1) सोको विणस्थि देसो लोयायासस्स णिरवसेसस्स। जत्थ ण सम्बो जीवो जादो मरिदो य बहुवारं॥ (द्वादशानुप्रेक्षा-68) - समस्त लोकाकाश के प्रदेशों में ऐसा कोई भी प्रदेश नहीं बचा है जहां ये सभी संसारी जीव कई बार उत्पन्न नहीं हुए हों तथा नहीं मरे हों। (2) न सा जाइ न सा जोणि, न तं हाणं न तं कुलं। न जाया न मुवा तत्थ, सव्वे जीवा अणन्तसो॥ (प्रकीर्णक) न मको सामना HIL,4701
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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