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________________ - यह अस्थिर जीवन वाला प्राणी विवश होकर एक लम्बे रास्ते (संसार) पर चला जा रहा है, जिस पर सभी चलते आए हैं। (3) तेन संसारपदवीमवशोऽभ्येत्य निर्वृतः। प्रासङ्गिकैः कर्मदोषैः सदसन्मिश्रयोनिषु॥ (भागवत पुराण-3/27/3) - (कर्तृत्वाभिमानी जीव अपने) देह के संसर्ग से किये हुए (पुण्य-पापादि) दोष के कारण अपनी स्वाधीनता व शान्ति खो कर, उत्तम, मध्यम-नीच योनियों में उत्पन्न होता हुआ, संसार-चक्र में घूमता रहता है। (4) जे गुणे से आवटे। (आचारांग सूत्र- 2/1) - इन्द्रियों का विषय ही संसार है। (अर्थात् इन्द्रियों की विषयप्रवृत्ति ही संसार है, संसार का मूल है।) __ (5) काम !जानामि ते मूलं, सङ्कल्पा किल जायसे। न ते सङ्कल्पयिष्यामि, समूलो न भविष्यसि॥ (महाभारत-2/177/25) – हे काम ! मैं तेरे मूल को जानता हूं। तुम मन के संकल्प से उत्पन्न होते हो। मैं तुम्हारा संकल्प नहीं करूंगा तो तुम समूल नष्ट हो जाओगे। (6) कामः संसारहेतुश्च। (महाभारत-3/313/98) Pोन : 11 को सार Ji! 10 {htI. 46 > C
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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