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________________ इन्द्रिय-निग्रह (इन्द्रिय- वश्यता) व्यक्ति जब जन्म लेता है तो उसकी जीवन-यात्रा उसी समय से प्रारम्भ हो जाती है जब इन्द्रियाँ अपना-अपना व्यापार प्रारम्भ करती हैं । इन्द्रियों द्वारा विषयों के सेवन से व्यक्ति को संतुष्टि कभी मिलती नहीं, और व्यक्ति अमर्यादित उच्छृंखल रूप से विषय - सेवन में लीन हो जाता है। वह व्यक्ति इन्द्रियों का दास बन कर अस्वस्थता, विविध रोग, अशान्ति एवं विरोधपूर्ण प्रतिकूल परिस्थिति आदि में स्वयं को दु:खग्रस्त कर लेता है। तपःपूत ऋषियों-मुनियों ने उक्त दुःख से छुटकारा पाने का एकमात्र उपाय बताया है- संयम व इन्द्रियजय । जितेन्द्रिय होने के लिए मन को अनुशासित करना जरूरी है, क्योंकि मन ही इन्द्रियों का प्रेरक है। मनोजय होने पर इन्द्रियां स्वतः निष्क्रिय- शान्त हो जाती है। अभ्यास व वैराग्य के बल पर ही मन को वश में करना संभव हो पाता है। वस्तुतः व्यक्ति के भावी जीवन का मूल मन की विविध अवस्थाओं / परिणामों में ही निहित है। मन के प्रशस्त भाव सुखमय जीवन का और अप्रशस्त भाव दुःखमय जीवन का निर्माण करते हैं। मनोजयी व जितेन्द्रिय व्यक्ति ही योगसाधना का पात्र बनता है। वह जल में कमल की तरह निस्संग होकर सर्वत्र निर्लिप्त रहता हुआ क्रमशः दुःखमयी परम्परा का अंत करने में सफल होता है। इस वैचारिक मान्यता को वैदिक व जैन - दोनों धर्मों में स्वीकारा गया है। (1) एवं वियारे अमियप्पयारे, आवज्जई इंदियचोरवस्से । (उत्तराध्ययन सूत्र- 32/104) - इन्द्रिय रूपी चोरों के वशीभूत आत्मा को अनेक प्रकारके विकार (दोष) घेर लेते हैं। तृतीय खण्ड 445
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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