SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 389
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीराम अयोध्या-नरेश दशरथ के पुत्र और माता कौशल्या के अंगजात थे। लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न भी दशरथ के पुत्र थे। चारों भाइयों में परस्पर आदर्श प्रेम था। श्रीराम बचपन से ही उत्तम गुणों के आकर थे। वे अपने माता-पिता और गुरु को भगवान् की तरह मानते थे। संत कवि तुलसीदास के शब्दों में प्रात काल उठि के रघुनाथा। मात-पिता-गुरु नावहि माथा ॥ शिक्षा-दीक्षा की पूर्ति के पश्चात् श्रीराम ने अपने अनुज लक्ष्मण के साथ मिलकर राक्षसों से ऋषियों-मुनियों की रक्षा की। राजसी सुविधाओं को त्यागकर वे अकिंचन मुनियों-ऋषियों के चरणों में रहते। जंगल और महल उनके लिए समान थे। मिथिलानगरी में राजा जनक ने अपनी पुत्री सीता का स्वयंवर रचा। निर्धारित शर्तानुसार स्वयंवरविजेता को शिव के प्रचण्ड धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ानी थी। आगंतुक सभी नरेशों के उक्त शर्त पर पराजित हो जाने के बाद श्रीराम ने धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाई। फलस्वरूप धनुष टूट गया। सीता ने श्रीराम के गले में जयमाला डाल दी। राजा दशरथ ने अपने पुत्र श्रीराम के राज्यसिंहासन देने की घोषणा की। लेकिन श्रीराम की विमाता कैकेयी ने रंग में भंग डालते हुए दशरथ से पूर्वरक्षित अपने दो वर मांग लिए। उसने अपने पुत्र भरत के लिए राज्य मांगा और राम के लिए चौदह वर्ष का वनवास । पिता के वचनों की आन पर श्रीराम ने स्वयं को कुर्बान कर दिया। वे हर्षित मन से जंगलों में चले गए। सीता और लक्ष्मण ने श्रीराम के कदमों का अनुगमन किया। ___ जंगल में मंगल मनाते श्रीराम अनेक वर्षों तक तपस्वियों का सा जीवन जीते रहे। वे ऋषियों-मुनियों का सत्संग करते हुए विचरते थे। एक बार लक्ष्मण के हाथ से रावण की बहन शूर्पणखा के पुत्र का वध हो गया । फलस्वरूप श्रीराम और लक्ष्मण को अनेक राक्षसी शक्तियों से निपटना पड़ा। सब सूचनाएं लंकाधिपति रावण को ज्ञात हुईं। रावण अपने समय का प्रबल पराक्रमी राजा था। वह दुष्ट और अहंकारी था। उसने छल-बल से श्रीराम की अर्धांगिनी सीता का अपहरण कर लिया। श्रीराम और लक्ष्मण सीता की खोज में वन-दर-वन भटकने लगे। सुग्रीव और भक्तराज हनुमान् की सहायता से सीता का पता लगाया गया। विशाल समुद्र को लांघकर श्रीराम और लक्ष्मण, सुग्रीव की सेना व हनुमान् सहित लंका पहुंचे। << जैन धर्म गां दिक धर्म की सांस्कृतिक एका /364)> C
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy