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________________ इस प्रकार जैन परम्परा आत्मा में लोकव्यापी होने की क्षमता स्वीकार करती है, और अणु व महत् दोनों प्रकार के शरीरों के अनुरूप आत्मा की स्थिति को सम्भव मानती है। वह वामन भी हो सकती है और विराट्पता भी प्राप्त कर सकती है। अन्याय के प्रतीकार हेतु अपनी आत्मीय शक्ति का प्रयोग करना न्यायोचित है- ऐसा अनेक जैन ऐतिहासिक जीवन-चरितों के अनुशीलन से ज्ञात होता है। एक जैन आचार्य का यह कथन इस प्रसंग में समर्थन देता हुआ प्रतीत होता है- अत्थेगइयाणं जीवाणं बलियत्तं साहू। (भगवती सूत्र- 12/2)। अर्थात् धर्मनिष्ठ आत्माओं का बलवान् (आत्मीय शक्ति से सम्पन्न) होना अच्छा है। जैन आचार्य गुणभद्र ने 'उत्तरपुराण' में इस सम्बन्ध में स्पष्ट नीति-निर्देश दिया है, जो मननीय है: धर्मध्वंसे सतां ध्वंसः, तस्माद् धर्मद्रुहोऽधमान् । निवारयन्ति ये सन्तो रक्षितं तैः सतां जगत् ॥ (उत्तरपुराण, 76/418) -धर्म यदि नष्ट हो गया तो सन्त-महात्माओं की परम्परा भी स्वतः नष्ट हो जाएगी, इसलिए जो सन्त-महात्मा अधम धर्मद्रोहियों (के प्रभाव)को रोकते हैं, वे सन्त-संसार की ही रक्षा कर रहे होते हैं। उपर्युक्त वैचारिक परिप्रेक्ष्य में वैदिक व जैन- इन दोनों विचारधाराओं से सम्बद्ध कथानक यहां प्रस्तुत किये जा रहे हैं जिनमें धर्ममर्यादा की रक्षा हेतु अपने विराट रूप से समस्त लोक को व्याप्त करने की घटना घटित हुई है। वैदिक परम्परा के विष्णु स्वयं परमात्मा हैं, पर उन्होंने वामन रूप बनाकर दिखाया और अन्त में विराट रूप से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को दो ही कदमों में नाप दिया। जैन परम्परा के मुनिविष्णुकुमार ने भी आत्मा की लोकव्यापिनी शक्ति को प्रकट किया और दो कदमों से सम्पूर्ण भरतक्षेत्र को नाप लिया । देखिए- वामन और विराट् स्वरूप को। जन ग प इंदिक धर्म की सांस्कृतीक एकता 3422 0
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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