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________________ आत्मीय बल का प्रयोग उस समय अधिक अपेक्षित माना गया है जब किसी पापी के हाथों किसी व्यक्ति, समाज या राष्ट्र को या उसके सम्मान को क्षति पहुंच रही हो, अथवा समाज में अन्याय हो रहा हो, और उसका प्रतीकार करना अत्यावश्यक हो । प्रतीकार के अभाव में अन्याय को बल मिलता है। महाभारत में कहा गया है प्रतिषेद्धा हि पापस्य यदा लोकेषु विद्यते। - तदा सर्वेषु लोकेषु पापकृन्नोपपद्यते ॥ (महाभारत- 1/180/9) -यदि अन्याय का कोई प्रतीकार करने वाला खड़ा हो जाता है, तो फलस्वरूप कोई पापकर्ता या अपराधी सामने नहीं आता। इसीलिए यह माना जाता है कि अन्याय को मूक होकर सहते जाना अन्याय को बढावा देना ही है। प्रत्येक आत्मा में अद्भुत विराट् शक्ति निहित है, इस सम्बन्ध में जैन मनीषियों के विचार यहां उल्लेखनीय हैं-आत्मा में अनन्त शक्ति है, किन्तु कर्मो के आवरण के कारण वह शक्ति पूर्णतः अभिव्यक्त नहीं हो पाती।आत्मा में परमात्मा स्वरूप छिपा हुआ है, ज्योंही कर्म-मल से वह मुक्त होगी, परमात्मा का स्वरूप अभिव्यक्त हो जाएगा-कम्मकलंकविमुक्को परमप्पा भण्णए देवो (मोक्षप्राभृत, 5)। क्षमता की दृष्टि से यह आत्मा 'अचिन्त्यशक्तिशाली देव' है- अचिन्त्यशक्तिः स्वयमेव देवः (समयसारकलश, 144)। समस्त लोकाकाश-प्रदेशों का जो समग्र परिमाण है, उतने क्षेत्र तक व्यापक होने की क्षमता आत्मा में है, और वह अपनी विशिष्ट अवगाहन-शक्ति के कारण, उपलब्ध अणुशरीर में अणुरूप हो जाता है तो महान् शरीर में महान् हो जाता है: निश्चयेन लोकमात्रोऽपि। विशिष्टावगाहपरिणामशक्तियुक्तत्वात् नामकर्मनिर्वृत्तमणु महच्च शरीरमधितिष्ठन् (पंचास्तिकाय पर अमृतचन्द्राचार्य कृत तत्त्वप्रदीपिका वृत्ति)। निश्चयेन लोकाकाशप्रदेशप्रमितः (वहीं, जयसेनकृत तात्पर्यवृत्ति टीका)। कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में मुक्ति प्राप्त करने से पूर्व, सर्वज्ञतीर्थंकर आदि 'लोकपूरणसमुद्घात' करते हैं, जिसमें उनके आत्म-प्रदेश समस्त लोक में व्याप्त होकर पुनः पूर्वरूप में अवस्थित हो जाते हैं। . मितीय सर 341
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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