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अपने नाना महाराज उग्रसेन के बन्धन तोड़े। श्रीकृष्ण ने पुनः उग्रसेन को ही मथुरा का राजसिंहासन पर आसीन किया।
- राज्य के लोभी अहंकारी कंस रूपी अधर्म का पतन हुआ। और धर्मप्राण महाराज उग्रसेन रूपी धर्म का पुनरुत्थान हुआ। [द्रष्टव्यः भागवतपुराण, 10/67-69 अध्याय]|
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लोभ समस्त दुर्गुणों का उद्गम-स्थल है, सब पापों का मूलकेन्द्र है। प्रसिद्ध आलोचक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लोभी व्यक्ति को प्रताड़ित करते हुए कहा था
___ "लोभियों! तुम्हारा अक्रोध, तुम्हारा इन्द्रिय-निग्रह, तुम्हारी मानापमान-समता, तुम्हारा तप अनुकरणीय है। तुम्हारी निष्ठुरता, तुम्हारी निर्लज्जता, तुम्हारा अविवेक, तुम्हारा अन्याय विगर्हणीय है। तुम धन्य हो। तुम्हें धिक्कार है।"
___ लोभ विपरीत सोच का परिणाम है। विपरीत सोच यह होती है कि 'काम-भोग में सुख है'। सही सोच यह है कि सुख का मूल योग है। समाधि है। ध्यान है। उसे अलोभ से ही साधा जा सकता है। अलोभ विवेक, ज्ञान और मर्यादा से उत्पन्न होता है।
लोभ की पराकाष्ठा पर जीने वाले ये कुछ ऐसे ऐतिहासिक कुपुत्रों के कथानक ऊपर दिए गए हैं, जिन्होंने राज्य के लोभ में अपने पूज्य पिताओं तक को कारावास में डाल दिया था। कूणिक जैन परम्परा से सम्बद्ध है तो कंस वैदिक परम्परा से। औरंगजेब भारतीय इतिहास का ज्वलन्त पात्र रहा है। लोभ यानी राज्य का लोभ । वह हिन्दू में हो, मुसलमान में हो या जैन में हो, एक ही परिणाम देता है- क्रूरता! हिंसा! अन्याय! मर्यादाओं का अन्तिम सीमा तक अतिक्रमण! काल, परम्परा और पात्रों की दृष्टि से ये तीनों कथानक भिन्न हैं। परन्तु इनका साम्य अभिन्न है।
द्वितीय तगड 339