SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 350
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ और कठोरता के लिए कोई स्थान नहीं है। उसमें तो मृदुता और सरलता की प्रधानता होती है। भगवद्भक्ति के समान ही भ्रातृभक्ति का भी विशेष महत्त्व है। बड़े भाई की प्रसन्नता के लिए स्वत्व को मिटा देना भ्रातृभक्ति का स्वरूप है। जैन व वैदिक- इन दोनों विचारधाराओं के साहित्य में इस भ्रातृ-भक्ति का निरूपण हुआ है। बड़े भाई को पिता के जैसा महनीय स्थान देना- यह भारतीय संस्कृति का पारिवारिक आदर्श रहा है। वैदिक परम्परा में, आदिकवि वाल्मीकि ने (रामायण के किष्किन्धा काण्ड में) विद्या-दाता गुरु एवं पिता के समान ही ज्येष्ठ भ्राता को पूज्य बताया है: ज्येष्ठो भाता पिता वाऽपि, यश्च विद्यां प्रयच्छति। त्रयस्ते पितरो ज्ञेयाः, धर्मे च पथि वर्तिनः ॥ (वा. रामा.- 4/18/13) अर्थात् धर्म-मार्ग पर चलने वाले व्यक्तियों को चाहिए कि वे ज्येष्ठ भाई तथा विद्या प्रदाता गुरु-इन्हें पितृ-तुल्य जाने। महाभारत में कहा गया है- ज्येष्ठो भाता पितृसमो, मृते पितरि भारत (महाभारत, 13/108/16)। अर्थात् पिता के मरने पर, ज्येष्ठ भाई ही पिता की तरह पूज्य व आदरणीय हो जाता है। मनुस्मृति का भी यही निर्देश है- पितेव पालयेत् पुत्रान् ज्येष्ठो भातृन् यवीयसः । पुत्रवच्चापि वर्तेरन् ज्येष्ठे भातरि धर्मतः (मनुस्मृति- 9/108)। अर्थात् ज्येष्ठ भाई को चाहिए कि वह छोटे भाइयों को पिता की तरह पाले-पोसे और छोटे भाइयों को भी चाहिए कि वे पुत्र की तरह रहें और बड़े भाई को पिता-तुल्य सम्मान दें।महाभारत के अनुसार, बड़े भाई को चाहिए कि छोटे भाइयों को 'आत्मवत्' माने- यथैवात्मा तथा भ्राता, न विशेषोऽस्ति कश्चन (महाभारत, 11/ 15/15), अर्थात् जैसी अपनी आत्मा, वैसे ही भाई हैं, अपनी आत्मा और भाई में कोई अन्तर नहीं है। बड़े भाई का अपने छोटे भाई के प्रति भी आदर्श प्रेम देखना हो तो रामायण में देखा जा सकता है। नागपाश में बंध कर लक्ष्मण के मर्छित होने पर विलाप करते हए राम ने अपने आदर्श भ्रातृ-प्रेम को अभिव्यक्त किया है। गोस्वामी सन्त तुलसीदास की रामायण में राम द्वारा अभिव्यक्त किये गए निम्नलिखित विचार-कण इस प्रसंग में उल्लेखनीय हैं: द्वितीय खण्ड,325
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy