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________________ मौसम और इस दशा में देखकर दंग रह गई।तब तक बरसात रूक चुकी थी। वेश्या ने दीपक जलाकर देखा-दीवार पर विषधर सर्प लटका हुआ था। उसका मन दुःखी हो गया। उसने बिल्वमंगल को डांटते हुए कहा- "बिल्वमंगल! जिस हाड़-मांस की देह पर तू इतना दीवाना हो रहा है, उसका अन्तिम परिणाम डरावना बुढ़ापा और फिर मृत्यु है। ऐसी दीवानगी यदि श्रीकृष्ण में होती तो तुम्हारा उद्धार हो जाता। धिक्कार है, तुम्हारे इस प्रेम पर।" उपयुक्त समय की फटकार ने बिल्वमंगल के हृदय को बदल दिया। उसी क्षण वह लौट गया। श्रीकृष्ण को पुकारता हुआ वह वन-वन गांव-गांव भटकने लगा। उसने सर्वस्व को भुला दिया। केवल श्रीकृष्ण की याद ही उसके हृदय में शेष थी। एक दिन एक कुएं पर पानी खींचती हुई एक सुन्दर महिला पर बिल्वमंगल की दृष्टि पड़ी। उस महिला के रूप ने एक बार पुनः बिल्वमंगल के कदम लड़खड़ा दिए। दीवाना बना वह उसके पीछे-पीछे चल दिया। वह महिला एक घर में प्रवेश कर गई। बिल्वमंगल गृह-द्वार पर बैठ गया। कुछ देर बाद गृहस्वामी बाहर आया । म्लानमुख ब्राह्मण को अपने द्वार पर देखकर उसने उसके वहां बैठने का कारण पूछा। बिल्वमंगल ने निष्कपट हृदय से कहा-“मैं तुम्हारी पत्नी के रूप पर मोहित होकर यहां तक चला आया हूं। मैं एक बार उसका मुखदर्शन करना चाहता हूं।" गृहस्वामी ब्राह्मण युवक की सरलता से प्रभावित हुआ। उसने विचार किया- यदि मेरी पत्नी के मुखदर्शनमात्र से इसे संतोष है, तो इसमें कोई हर्ज नहीं। वह अपनी पत्नी को बुलाने घर के भीतर चला गया। बिल्वमंगल के पतन का यह चरम था। सहसा उसका विवेक जगा । उसने अपने को धिक्कारा। उसने रूप पर आसक्त अपनी आंखों को दोषी माना। पास में बेल से उसने दो तीक्ष्ण शूल तोड़े और अपनी आंखों में भोंक लिए। लहू की धार बह चली। लेकिन बिल्वमंगल को हार्दिक प्रसन्नता हुई। वह उठा और पुनः भगवान् की खोज में चल दिया। अनुश्रुति है कि बिल्वमंगल ने अपना-मन-वचन शरीर श्रीकृष्ण की भक्ति में लगा दिया। कालान्तर में श्रीकृष्ण ने उन्हें दर्शन दिए और उनकी नेत्र-ज्योति लौटाई जीवन भर भगवद-भक्ति में बिताकर, बिल्वमंगल ने अपने उत्थान-पतन के घटनाक्रमों से पूर्ण जीवन का कल्याण किया। OOO द्वितीय रखण्ड/313
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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