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________________ एक बार अपने महल की छत पर थावर्चापुत्र खेल रहा था । पड़ोस के घर से उसे मधुर गीत सुनाई दिए । वे गीत थावर्चापुत्र को इतने मधुर लगे कि वह खेल को भूल गया और मधुर गीतों मे खो गया । उसके कानों में अमृत रस टपक रहा था । पुत्र के पैरों में बंधे घुंघरूओं की आवाज बन्द होने से थावर्चा सेठानी समझ गई कि उसका पुत्र खेल नहीं रहा है। उसने आवाज दी- "बेटे ! खेलना बन्द क्यों कर दिया है ? आओ नीचे, भोजन तैयार है ।" थावर्चापुत्र नीचे आया और बोला - " मां ! मुझे खेल से अधिक ये गीत मधुर लग रहे हैं। मैं भोजन नहीं करूंगा। पहले मैं इन गीतों को सुनूंगा ।" कहते हुए थावर्चापुत्र दौड़ते हुए पुनः छत पर चढ़ गया । लेकिन इस बार वह एक क्षण भी वहां ठहर न सका । वे गीत अब उसके लिए असहनीय हो गए थे । उदासमना वह नीचे उतर आया । अपनी मां की गोद में बैठकर उसने कहा- "मां! वे गीत जो चन्द पल पहले मुझे अत्यन्त प्रिय लग रहे थे, अब वे इतने कर्णकटु क्यों हो गए हैं? मां ! मुझे इन गीतों का रहस्य बताओ ।" वे थावर्चा सेठानी ने कहा - " बेटे ! जो तुम पहले सुन रहे थे, गीत थे । परन्तु जो तुमने बाद में सुने, वे गीत नहीं रोदन हैं । गीत मधुर होते हैं और कानों को भाते हैं । रोदन चूंकि अन्दर के दुःख के परिचायक होते हैं इसलिए अप्रिय लगते हैं । " “लेकिन मां! यह गीत और रोदन एक साथ कैसे ?” थावर्चापुत्र ने पूछा - "एक पल पहले मधुर गीत गाए जा रहे थे और कुछ पल बाद रो शुरू हो गया। ऐसा क्यों हुआ?” थावर्चा ने कहा-“बेटे ! हमारे पड़ोसी के घर पुत्र • पैदा हुआ था । उसी खुशी में पारिवारिक महिलाएं मंगल गीत गा रही थीं। वे तुम्हें प्रिय लग रहे थे। लेकिन चन्द श्वास लेकर ही वह पुत्र मर गया। मरने पर रोने की रीत है । उस पुत्र के मर जाने पर हमारे पड़ोसी रो रहे हैं।" “मां! जन्म क्या होता है? मृत्यु क्या होती है?” यावर्चापुत्र गंभीर हो गया । द्वितीय खण्ड : 267
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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