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________________ श्रीकृष्ण के मुख-कमल से एक आह निकली। परिचित स्वर सुनकर जराकुमार दौड़कर वटवृक्ष के पास पहुंचा। सत्य से साक्षात् होने पर उसके कदमों के बीचे से धरा सरक गई। उसका हृदय टूक-टूक हो गया। वह दौड़कर श्री कृष्ण के कदमों में गिरकर क्षमा मांगने लगा। श्रीकृष्ण ने आंखें खोली और बोले-"जराकमारा भवितव्यता को मिटाना असंभव है। मेरी मृत्यु तुम्हारे हाथ होनी थी। लेकिन तुम दाऊ को जानते हो।वे मेरी मृत्युको कदापि सह नहीं पाएंगे।वे तुम्हें जीवित नहीं छोड़ेंगे। तुम भाग जाओ।दूर जहां दाऊ तुम्हें खोज न पाएं।" जराकुमार भाग गया। अपने जीवन पर मृत्यु के हस्ताक्षर करने वाले जराकुमार की प्राणरक्षा करके श्रीकृष्ण ने इस जीवन से आंखें मूंद ली। निकल गए परलोक की यात्रा पर। स्वयं को मौत देने वाले के प्रति भी करुणा! उसके प्रति भी क्षमा का भाव! यही तो विशेषता होती है महापुरुषों की। श्रीकृष्ण जैसा महनीय व्यक्तित्व फिर इस महागुण से कैसे रिक्त हो सकता था? [३] ब्रह्मर्षि वशिष्ठ विदिक) ब्रह्मर्षि वशिष्ठ सूर्य वंश के पुरोहित थे। वे काम, क्रोध और मोह के विजेता थे। प्रथमतः वे पुरोहित का पद स्वीकार नहीं करना चाहते करूणामूर्ति ईसामसीह ईसाई धर्म के प्रवर्तक ईसा मसीह थे। ईसा मसीह करुणा की प्रतिमा थे। विरोधी लोगों ने उन पर अनेक अत्याचार किये, उन्हें सताया, दुःखी किया परन्तु ईसा ने उन का बुटा न सोचा। मुखिया के जीवन का अन्तिम प्रसंग कितमा मार्मिक है, पहिये, और स्वयं देखिये वै कितने क्षमावान औ: ईसा मसीह करुणा और प्रेम के देवता थे। लगभग दो हजार वर्ष पूर्व वे इस धरा पर अवतरित हुए थे। उनके भीतर संचित ईश्वरीय सद्गुणों को देखकर लोगों ने उन्हें परमात्मा का पुत्र माना था। ईसा मसीह ने लोगों को प्रेम का संदेश दिया। उन्होंने कहा- सब मनुष्य उस परमपिता परमात्मा की संतान हैं। जातियों, धर्मों और राष्ट्रों की सीमाएं मनुष्य को बांट नहीं
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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