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गए। महर्षि मतंग ने इस अदृश्य सेवक का पता लगाने का निर्देश अपने शिष्यों को दिया। शिष्य रात भर जाग कर आश्रम के पास पहरा देने लगे। प्रातः भोर में ही समिधा-संग्रह आश्रम द्वार पर रखती हुई शबरी पकड़ी गई। शिष्य उसे महर्षि मतंग के पास ले गए। भयातुर शबरी ने हाथ जोड़कर ऋषि को साष्टांग प्रणाम करते हुए कहा
" हे दयासिन्धो! मेरे अपराध को क्षमा कर दो। मैंने अपनी सीमाओं का अतिक्रमण किया है। अन्य किसी प्रकार की सेवा में अपना अनधिकार समझकर मैंने इस प्रकार की सेवा में ही मन लगाया है। मैं आपकी सेवा के योग्य नहीं हूं। मुझे क्षमा कर दो।"
आत्मतत्त्व को पहचानने वाले महर्षि मतंग ने कहा-“शबरी! तुम महान् भाग्यवती सन्नारी हो । तुम मेरे आश्रम की परिधि में रहकर ही प्रभु नाम का सुमरण करो।' महर्षि ने अपने शिष्यों को आदेश दिया कि वे शबरी के लिए एक कुटिया और अन्न का प्रबन्ध कर दें। सत्संग श्रवण करती हई तथा ऋषियों की सेवा करते हुए शबरी सुखपूर्वक समय बिताने लगी। अन्य अनेक ऋषि शबरी को शरण देने के कारण मतंग ऋषि से नाराज हो गए और भोजनादि तो दूर, उन से संभाषण तक का परित्याग कर दिया। मतंग ऋषि ने इसकी परवाह नहीं की।
एक दिन मतंग ऋषि ने परलोक-प्रस्थान की घोषणा की। शबरी का हृदय जार-ज़ार हो उठा। वह रोने लगी। बोली-“नाथ! मुझ चरण-सेविका को भी अपने संग ले चलो। आपके जाने के बाद मुझ भीलनी की क्या गति होगी?"
"महाभागा! आंसू पोंछ।' महर्षि मतंग बोले- "भगवान् श्रीराम दण्डकारण्य में आएंगे। उनके दर्शन करके तेरी आत्मा का सदा सर्वदा के लिए उद्धार हो जाएगा।शोक बन्द कर । उन दीनानाथ को हृदय में धारण करके उनकी प्रतीक्षा कर। अवश्य तेरा कल्याण होगा।' कहकर मतंग ऋषि ने देह छोड़ दिया।
सेवा और श्रीराम की प्रतीक्षा में उद्विग्न शबरी समय बिताने लगी। एक दिन वह तालाब से जल लेकर आ रही थी। उधर से एक ऋषि भी खान करके आ रहे थे।
सहसा शबरी का वस्त्र ऋषि को छू गया। ऋषि क्रोध से
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