SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 146
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनाचार्य नेमिचन्द्र (सिद्धान्तचक्रवर्ती) परसमयाणं वयणं मिच्छं खलु होइ सव्वहा वयणा । जेाणं पुण वयणं सम्मं खु कहंचिवयणादो | (गोम्मटसार, कर्मकाण्ड - 895) अन्य सिद्धान्तों के कथन इसलिए मिथ्या हैं क्योंकि वे अपने को सर्वथा सत्य - 'सभी दृष्टियों से सत्य' घोषित करते हैं । किन्तु यदि वे स्वयं को 'किसी दृष्टि - विशेष' से सत्य कहें तो जैनों के लिए वे समीचीन हैं । निष्कर्ष: उपर्युक्त समग्र निरूपण के परिप्रेक्ष्य में निश्चय के साथ यह कहा जा सकता है कि वैदिक व जैन दोनों ही अपनी-अपनी मौलिक अवधारणाओं के पृथक-पृथक होते हुए भी सांस्कृतिक एकसूत्रता में अनुस्यूत हैं और इसलिए उनमें पर्याप्त साम्य भी - दृष्टिगोचर होता है । सत्य एक है, जो दोनों धर्मों के साहित्य में प्रतिबिम्बित हो रहा है । ❖❖❖ प्रथम सग 123
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy