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________________ सदाशिवः परं ब्रह्मा सिद्धात्मा तथतेति च । शब्दैस्तदुच्यते ऽन्वर्थादेकमेवैवमादिभिः ॥ ( योगदृष्टिसमुच्चय, 13) - एक ही परमात्मा-तत्त्व को सदाशिव, परब्रह्म, सिद्धात्मा, तथता - इत्यादि सार्थक नामों से अभिहित करते हैं। यस्य निखिलाश्च दोषाः न सन्ति सर्वे गुणाश्च विद्यन्ते । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै ॥ (लोकतत्त्वनिर्णय, 4) - जो समस्त दोषों से रहित हो चुका है और समस्त गुणों - से सम्पन्न है, उसे ब्रह्मा कहो या विष्णु कहो, शंकर कहो या जिनेन्द्र कहो, मेरी उसे वन्दना है जैनाचार्य सोमदेव सर्व एव हि जैनानां प्रमाणं लौकिको विधिः । यत्र सम्यक्त्वहानिर्न, यत्र न व्रतदूषणम् ॥ ( उपासकाध्ययन, 34/48) श्रुतिः शास्त्रान्तरं वाऽस्तु प्रमाणं वाऽत्र का क्षतिः । ( उपासकाध्ययन, 34/477) - - जैनों के लिए समस्त लौकिक आचार-विचार प्रमाण हैंअर्थात् स्वीकार्य हैं, बशर्ते उनके सम्यक्त्व में कोई कमी नहीं आए और व्रत भी खण्डित नहीं हों । इसी तरह, वैदिक परम्परा के वेदों को प्रमाण मानने में भी हमें कोई आपत्ति नहीं (बशर्ते सम्यक्त्व व व्रतों के विरूद्ध कोई तथ्य प्रमाण रूप में मान्य नहीं हैं) । जैन धर्म एवं वैदिक धर्म की सास्कृतिक एकता / 122
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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