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इसी तथ्य को आचार्य जिनदास गणि ने भी इस 5 प्रकार व्यक्त किया है। परसमयो उभयं वा सम्मदिहिस्स ससमओ चेव।
(विशेषावश्यक भाष्य, 951) अर्थात् (वैदिक परम्परा का तथाकथित) परकीय सिद्धान्त भी समीचीन दृष्टि वाले के लिए 'स्वकीय' सिद्धान्त . ही है। से तात्पर्य है कि सम्यग्दृष्टि अनुसन्धाता-अध्येता व्यक्ति । 5 जिस परम सत्य का दर्शन अपने (जैन) शास्त्रों में करता है, वही +सत्य उसे अन्य शास्त्रों में भी दिखाई पड़ता है। उसे एक सर्वांगीणॐ सर्वमान्य सत्य का दर्शन होता है। अतः उसके लिए अपना और पराया शास्त्र- इस प्रकार की भेदरेखा ही समाप्त हो जाती है।
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पूज्य गुरुदेव की सत्यान्वेषण की दृष्टि:
मेरी अनन्त-अनन्त आस्था-श्रद्धा के केन्द्र परम श्रद्धेय गुरुदेव आचार्यकल्प मुनिश्री रामकृष्ण जी महाराज सर्वदा 5 "भगवान् महावीर के अनेकान्तवाद के प्रबल पक्षधर थे। वे सत्य के के आजीवन अन्वेषक रहे। उनका समग्र जीवन पन्थ, सम्प्रदाय है व संकीर्ण दीवारों में प्रतिबद्ध न रहकर धार्मिक उदारता व सहिष्णुता के के वातावरण की स्थापना में समर्पित था। उन्होंने न केवल जैन आगमों का ही अध्ययन किया, अपितु वैदिक आदि अन्य परम्पराओं के ग्रन्थों व सिद्धान्तों का भी अनाग्रह दृष्टि से गहन । अध्ययन किया था। वे अनेक भाषाओं के ज्ञाता थे, इसीलिए उन्हें विविध परम्परा के ग्रन्थों के पढ़ने-समझने में कोई असुविधा
नहीं होती थी। 999999999999999999॥"
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