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कि तूं च्यारि मुखि क्यार परि धर्म भाख्यो, कि तें नरय पडत भव्य लोक राख्यो । कि तू संघ चतुर्विध सबल थाप्यो, कि तें मुगतिनु मार्ग तस वेगि आयो || १०७ ॥
कि तें कर्म-रज सयल साथै नीवारी,
कि ते वेग वरीउ जइ मुगति नारी । अछेदो, अभेदो, कितु आप बुधो, कि ते एक शत आठ ना मे प्रसीधो ॥ १०८ ॥
कि तूं जिनवरो, परम शंकरो, स्वामी, कि तें शरणदातार, शिव - गति - गामी । कि तुं देव-देवो, परम शक्ति धारी, कि तुं श्रोकरो, सर्व विघ्नापहारी ॥ १०९ ॥ कि तूं सर्व सिद्धि प्रदो, स्वयंसिद्धो, कि तें सर्व-काम-प्रदो, परमशुद्धो । कि तू सर्व सत्त्व- हितो, जगन्नाथो, कि ते निर्विकारो, निरामयो, नाथो ॥११०॥
कि तूं शिवो, योगी, चिदानंदरूपो,
कि ते स्फटिकसंकाश, परमस्वरूपो ।
कि तू परमार्थप्रदो, परब्रह्मो,
कि तुं लोकालोकावभासो, अजिह्मो ॥१११॥
कि तू अजो, परमेश्वरो, परमात्मा,
कि तूं शंभु विश्वेश्वरो, प्रमोदात्मा ।
कि तूं परो, परमद्युति, प्रकाशात्मा, कि तूं दिव्यतेजोमयो, ज्ञानात्मा ॥ ११२ ॥
कि तू सर्वोत्तम. श्रीनिवासो,
कि तें सर्वगो, परब्रह्मप्रकाशो |
कि तू सर्वदर्शी च सर्वज्ञ, एको, कि तूं अजर, अमरो, अनंतो, अनेको ॥११३॥