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सवि लोक वशि, यश पुहुवि मंडल लहे तुय पय अनुचरो
जागतु ०
व्याकरण, ककश तर्क, आगम अतुल पट्ट्र्शण तणा, वर काव्य, नाटक, भरह, पिंगल, ग्रंथ जे वरतें घणा । श्रुत महोदधि सकल, वाणी वासि मुझ मुखि मति वरो जागतु ०
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मोहि वहियो, कर्मि सहियो, भजी न सकं तूहनें तू दीन ऊपर, दयासागर, कृपा करि हवि मूहनें । अपराध सवि वीसारे, स्वामी, तारि मो भवसागरो जागतु ०
रूपक भुजंगप्रयात छंद ॥
( लहू सोल सादीह बत्तीस दीने इत्यादि)
पूर्वछा ॥
संखे सरपुर मंडणी खंडण खंपण खोडि । दोषी दुष्ट दुअंग मां महामानी मढ़ मोडि || ८२||
कि तुं मोडिवा क्षुद्र मंद रुद्र जाण्यो कि तूं भक्त जन पालिवा प्रेम आण्यो । कि तुं सव देवेश देवे वखाण्यो कि तूं धीर थई धम महारथ तान्यो ||८३॥ किं तू हठी शठ कमठ नो हठ उतार्यो कि तें पन्नगो जलणि जल, उगाय 1 कि तूं धरण पति सौ करिउ एक हेलां कि तें तास पत्नी करी रंग रेलां || ८४ || कि तूं नारी प्रभावती नेह लगाडयो कि त म्लेच्छपति दूरि नामई नसाड्यो । कि तू पुरी प्रसेनजित् करी खेमें कि तें कुमरी प्रभावती वरी प्रेमें || ८५ ||
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