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ये तो मोती ने में तो लाल बनासा, एकण नथडी में भेला ओप्या ॥४॥ थे तो बाज ने में तो लूम्ब बनासा । एकण डोरा में भेला बांध्या ॥५॥ थे तो चावल ने में तो दाल बनासा । एकण भांणां, में तो भेला पुरस्या ॥६॥ थे तो ज्योति ने में तो दिवलो बनासा । एकण पडवा में भेला प्रगट्या ॥७॥ 'धीरज' धरने इतरे मुलक्या 'श्रीनाथ' । बोलया सायबा ने हिवडा हुलस्या ॥८॥
। बूढो बनडो॥
(तर्ज-ओ ताराचन्दजी नीव गमारण वेरण आई हांजी ऊनो जो पानी
सर-सर वाणी मोतीडे) क्यों बूढा बनडा, धोलां में धूल नकाई ॥टेर॥ हां जो आखां तो ऊंडी हाले है मूंडी, हुंडी बटाई कीनी भंडीरा ॥क्यों॥१॥ हां जी देखे जी बाला, जाने तन ज्वाला, केश रंगाया झूठा कालारा ॥२॥ हाँ जी लकडा ये जाणे, पडिया मसाणे, मन में विचार न आणेरा॥३॥ हां जी बनी तो ठोठी, पोती सुं छोटी, देखत लागे नग खोटी रा ॥४॥ हां जो दुखाँ री घाटी, रीतां सुं नाटी